वासुदेव बलवंत फड़के का जीवन परिचय : Vasudev Balwant Phadke

भारत के शुरूआती क्रांतिकारियों में से एक वासुदेव बलवंत फड़के (vasudev balwant phadke) 1857 की प्रथम क्रांति की विफलता के बाद, आजादी के महासमर में पहली चिंगारी जलाई। उन्होंने ही भारत की स्वतंत्रता के लिए हथियारबंद आन्दोलन की आधारशिला रखी और भविष्य में होनेवाले भारत की आजादी के लिए सशस्त्र आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त किया।

Vasudev Balwant Phadke

भारत के इस महान क्रांतिकारियों वासुदेव बलवंत फड़के (vasudev balwant phadke) जी का जन्म 4 नबम्बर 1845 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में स्थित शिरढोने नामक गाँव में बलवंतराय और सरस्वतीबाई के घर हुआ। इनके दादाजी अनंत राय 1818 तक कर्नाल के किले पर अंग्रेजों के कब्ज़ा होने तक किले के कमांडर हुआ करते थें।

शिक्षा

फड़के की शिक्षा कल्याण और पूना में पूरी हुई, उनके पिता बलवंतराय चाहते थें की वह पढाई को छोड़ दे और एक व्यापारी की दूकान पर दस रुपये के मासिक वेतन पर नौकरी कर ले किन्तु फड़के नहीं माने और मुंबई आ गए। मुंबई में वह 20 रुपये के मासिक वेतन का नौकरी करते हुए अपनी पढाई को भी जारी रखा और सन् 1862 में वह बम्बई विद्यापीठ से स्नातक की परीक्षा पास की।

शिक्षा पूरी करने के बाद फड़के ‘ग्रेट इंडियन पेनिसुला रेलवे’ और मिलिट्री फाइनेंस डिपार्टमेंट जैसे कई सरकारी संस्थानों में नौकरी की। 1865 में वह पुणे आ गये और पूना में ही नौकरी करने लगे इसी दौरान उन्होंने जंगल में एक व्यायामशाला बनाई जहाँ ज्योतिबा राव फुले भी उनके साथी थे यहीं पर फड़के शस्त्र चलाना सिखा।

फड़के एक बहुत ज्यादा परिवारिक व्यक्ति थे और यह बहुत मुश्किल था की उनके जैसा एक परिवारिक व्यक्ति अंग्रेजी सरकार के खिलाफ अलगाव को प्रचारित करेगा पर इस काम को वह खुलेआम कर रहे थें।

विवाह

फड़के का विवाह 1859 में 14 की आयु में सईबाई से हुआ और विवाह के लगभग 13 वर्षों वाद 1872 में सईबाई के निधन हो गया।

पहली पत्नी के निधन के बाद उनका विवाह गोपिकाबाई से हुआ तो फड़के दूसरी पत्नी को घुड़सवारी और तलबारबाजी जैसे रन कौशल भी सिखाया।

खुद के शरीर को मजबूत बनाने के लिए अखाड़े में जाना शुरू कर दिया और पुणे के निकट गुलटेकड़ी पहाड़ी पर शारीरिक प्रिशिक्षण शुरू कर दिया।

आन्दोलन की नीव

1857 की क्रांति के विफलता के बाद देश में लोगों के बीच धीरे-धीरे जागृति आई इसके बाद देश कई संगठनों और प्रमुख क्रांतिकारी नेताओं का उदय हुआ। महादेव गोविन्द रानाडे उन व्यक्तियों में से एक थें।

1870 में रानाडे ने एक भाषण के दौरान इस बात पर बल दिया की अंग्रेज भारत को किस प्रकार आर्थिक रूप से लुट रही है।

इस बात का फड़के पर बड़ा प्रभाव हुआ और वह नौकरी करते हुए छुट्टी के दिनों में गाँव-गाँव जाकर लोगों को अंग्रेजों के इस लुट के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया।

घटना जिसने सबकुछ बदल दिया

वर्ष 1865 में उनकी माता सरस्वतीबाई अपनी आखरी साँस गिन रही थी तो फड़के ने अंग्रेज अधिकारियों से छुट्टी के लिए प्रार्थना पत्र देने के लिए गए किन्तु अंग्रेजों ने उन्हें छुट्टी नहीं दी तो अगले दिन फड़के स्वंय ही गाँव चले आये पर तब तक बहुत देर चूका था। इस घटना ने उन्हें पूरी तरह से बदल कर रख दिया और अंग्रेजों के प्रति उनका नफरत समय से साथ बढ़ता ही चला गया।

इस घटना के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और विदेशियों के विरुद्ध क्रांति की योजना तैयारी करने लगे। इसके लिए उन्होंने देश के कई छोटे-बड़े रियासतों के राजाओं से सहयता माँगी पर नहीं मिली तो उन्होंने ने शिवाजी के मार्ग को अपना लिया। यानी की अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला वार की नीति।

इसके लिए फड़के ने महाराष्ट्र में घूम-घूम पर प्राचर किया और युवाओं को संगठित करने का प्रयास किया, सार्वजनिक भाषण भी दी पर कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दिया तो उन्होंने सार्वजनिक भाषण देना बंद कर दिया और गुप्त संस्था बनाने की तैयारी शुरू कर दी।

पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में औपनिवेशिक शासन की आलोचना करनेवाले लेख और दादाभाई नौरोजी तथा महादेव गोविन्द रानाडे जैसे नेताओं के भाषण, फड़के के प्रेरणा स्रोत्र थें।

क्रांति की शुरुआत

1870 के दशक में दक्कन के क्षेत्र में पड़े अकाल और सरकार की राजस्व में हुई वृद्धि के कारण लोग भावनात्मक रूप से भी फड़के से जुड़ते गए।

20 फरवरी 1879 को फड़के ने अपने साथियों के साथ 200 लोगों के साथ एक मजबूत फ़ौज की घोषणा कर दी संभवतः भारत की यह पहली क्रांतिकारी सेना थी। माना जाता है की अकाल के कारण हुई तवाही को देखकर उन्हें शस्त्र क्रांति की आवश्यकता महसूस हुई।

इस दल ने अंग्रेजों से गुरिल्ला युद्ध लड़ने के लिए धन और शस्त्र इकठ्ठा करने के उद्देश्य से दल के लोगों ने मुंबई और कोंकण के आस-पास के क्षेत्रों में लुट-मार को अंजाम दिया।

1886-87 में महाराष्ट्र में भी भीषण अकाल पड़ा तो फड़के के दल ने अंग्रेजी सरकार के आर्थिक नीतियों को निंदा करते हुए घोषणापत्र जारी किया और अंग्रेजों को सख्त कार्यवाही की चेतावनी दी। इस घोषणा से देश भर में सनसनी फ़ैल गई।

अपने गतिविधियों को अंजाम देने के लिए लोगों के छोटे-छोटे समूह बनाए। एक समूह लोगों के बीच जकार अंग्रेजी शासन पर तंज कसते हुए ऐसे देशभक्ति की गीत गता था जिसमे जनसाधारण का दर्द झलकता था। ताकि लोग में देशभक्ति की भावना को जगाया जा सके। तो वहीँ दुसरे ग्रुप गुप्त बैठकों के जरीय विद्यालय से छोत्रों को संगठित करता था और जो मुख्य समूह था वह अंग्रेजी सरकार को चुनौती देने के लिए तरह-तरह की गतिविधियों की योजनाए बनता और उसे अंजाम देता था।

फड़के ने जनता से संवाद करने का के नया तरीका निकला था उन्होंने लोगों के अन्दर देशभक्ति की भावना को उभारने के लिए भावनात्मक और अध्यात्मिक संयोजन पर ध्यान दिया।

इनाम की घोषणा

धीरे-धीरे महाराष्ट्र में उनका प्रभाव फ़ैल चूका था जिससे अंग्रेज अफसर डर गए एक दिन एक सरकारी भवन में अंग्रेजों की बैठक चल रही थी तो 13 मई 1879 को रात 12 बजे वासुदेव बलवन्त फड़के अपने साथियों सहित वहाँ आ गए और अंग्रेज अफसरों को मारा तथा भवन में आग लगा दी।

इस घटना के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर 50 हजार रुपये का इनाम घोषित किया पर दुसरे ही दिन फड़के के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए की जो अंग्रेज अफसर ‘रिचर्ड’ के सिर लाएगा उसे 75 हजार रुपये का इनाम दिया जाएगा। इससे अंग्रेज अफसर और भी तिलमिला गया।

Phadke की गिरफ्तारी

1857 की क्रांति में अंग्रेजों की सहयता करके जागीर पाने वाले बडौदा के गायकवाड के दीवान के बेटे के घर शादी ओ रही थी। फड़के ने साथी दौलतराम नाइक के साथ मिलकर उसके घर से 50 हजार रुपये का सामान लुट लिया। इस पर अंग्रेजी सरकार और भी भड़क उठी और पुलिस फड़के के पीछे पड़ गई।

एक दिन बीमारी की हालत में मंदिर में विश्राम कर रहे थें, तभी 20 जुलाई 1879 को बीजापुर के देवर नावडंगी गाँव से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर और आजीवन कारावास की सजा गई।

उन्हें काली पानी की सजा देकर अदन भेज दिया गया।वहाँ से उन्होंने भागने का प्रयास किया किन्तु वह भाग पाते उससे पहले ही उन्हें फिर से पकड़ लिया गया।

निधन

जेल में ही वह क्षय रोग से पीड़ित हो गए और इस महान देशभक्त का 17 फरवरी 1883 को निधन हो गया।

वासुदेव बलवंत फड़के (vasudev balwant phadke) का क्रांतिकारी जीवन भले ही छोटा रहा हो किन्तु उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए हथियारबंद आन्दोलन की आधारशिला रखी और भविष्य में होनेवाले भारत की आजादी के लिए सशस्त्र आन्दोलन का मार्ग प्रशस्त किया।

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