वाकटक वंश का इतिहास : Vakataka Vansh

सातवाहन वंश के पतन के बाद और चालुक्य वंश के उदय के पहले एक नए राजवंश वाकटक राजवंश का उदय हुआ जो पुरे दक्कन के क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली और प्रमुख राजवंश था। पुराणों के अनुसार वाकटक वंश (vakataka vansh) का संस्थापक विन्ध्याशक्ति था और इन्होने अपनी राजधानी विदर्भ (बरार) को बनाया।

Vakataka Vansh (विन्ध्याशक्ति – 255 से 275 ई०)

इसने सबसे पहले पूर्वी मालवा पर अपनी शक्ति स्थापित करता है, उसके बाद में सातवाहनों के प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया और ऐसा इसलिए कारण से संभव हो पा रहा था क्योंकी सातवाहन वंश का जब पतन हुआ तो वह कई छोटे-छोटे भागों में बट गया था जहाँ से राजा काफी कमजोर थे।

विन्ध्याशक्ति गोत्रीय ब्रह्मण थे और ब्राहमणों के एक महान पक्षधर थे, इन्होने अनेक वैदिक यज्ञ करवाए। वाकटकों ने ब्राहमणों को अध्याधिक भूमि दान दिया जिसका प्रमाण इनके द्वारा जारी किए गए ताम्रपत्तो से मिलता है।

सांस्कृतिक द्वीष्टि से, दक्षिण भारत में वैदिक धर्म को फैलाने का श्रेय विन्ध्याशक्ति को दिया जाता है। इस कारण इनकी तुलना इंद्र और विष्णु से किया गया है।

प्रवरसेन प्रथम (275 से 335 ई०)

इनके समय में वाकटकों के शक्ति का सर्वाधिक विस्तार हुआ, इन्होने चारों दिशायों में चार अश्वमेध यज्ञ कराएं। अश्वमेध में एक घोड़े को स्वतंत्र रूप से छोड़ा जाता है, और जो भी इस घोड़े पकड़ता है उसे युद्ध करना पड़ता है। जिससे भी अनुमान लगाया जाता की यह सबसे शक्तिशाली शासक था।

यज्ञ के बाद इनके शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुआ और इनके साम्राज्य का विस्तार होकर, मध्य भारत में बुन्देलखण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक फ़ैल गया।

प्रवरसेन-1 ने शकों के कई क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया और इन्होने महाराज तथा सम्राट की उपाधि धारण किया था।

रुद्रसेन प्रथम (335 से 360 ई०)

रुद्रसेन प्रथम जब राजा बनता है तो उस समय, भारत के नेपोलियन के नाम से प्रसिद्ध गुप्त वंशी शसक समुद्रगुप्त मगध में शासन कर रहा था। और कहीं समुद्रगुप्त रुद्रसेन प्रथम के राज्य पर आक्रमण ना कर दे इससे पूर्व ही रुद्रसेन प्रथम गुप्तो के साथ मैत्रीपूर्ण संवंध स्थापित कर लिया और हुआ भी ऐसा भी समुद्र्गप्त ने रुद्रसेन के राज्य को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रों पर आक्रमण किया।

समुद्रगुप्त जब दक्षिण भारत के राज्यों को जीत रहा था तो उस समय समुद्रगुप्त ने रुद्रसेन प्रथम के राज्य को छोड़ दिया अतः समुद्रगुप्त के प्रयाग-प्रशस्ति अभिलेख में वाकटक राजवंश का जिक्र नहीं मिलता है।

पृथ्वीसेन प्रथम (360 से 385 ई०)

इसका शासनकाल बिल्कुल ही शांति और समृद्ध पूर्ण रहा, वाकटक लेखों में पृथ्वीसेन प्रथम को महाभारत के युधिष्ठिर के सामान बताया गया।

पृथ्वीसेन प्रथम ने अपने पुत्र रुद्रसेन द्वितीय का विवाह, गुप्त राजकुमारी और चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त से करवाया जिससे गुप्तों से मित्रता और भी गहरी हो गई।

रुद्रसेन द्वितीय (385 से 390 ई०)

रुद्रसेन द्वितीय ने अपने पत्नी प्रभावती गुप्त के प्रभाब में आकर बौद्ध धर्म त्याग दिया और वैष्णव धर्म को अपना लिया। राजा बनने के 5 वर्ष बाद ही रुद्रसेन द्वितीय की अकाल मृत्यु हो गया।

प्रभावती गुप्त (संरक्षिका)

प्रभावती गुप्त के दो पुत्र था दिवाकर सेन और दामोदर सेन, प्रभावती गुप्त अपने नवालिक पुत्र दिवाकर सेन की संरक्षिका बन गई लेकिन 403 ई० में दिवाकर सेन की भी मृत्यु हो गई। तो प्रभाबती अपने छोटे पुत्र दामोदर सेन की संरक्षिका बनकर लगभग 13 वर्षो तक शासन किया।

प्रवरसेन द्वितीय या दामोदर सेन (410 से 440 ई०)

दामोतर सेन, प्रवरसेन द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो वाकटक वंश (vakataka vansh) का अंतिम शक्तिशाली शासक था जो एक कुशल प्रशासक और शांति प्रिय शासक था। इनके रूचि विशेषकर साहित्य और कला के क्षेत्र में था। इन्होने “सेंतुबंध” नामक काव्य की रचना किया।

  • इसने अपनी राजधानी स्थानान्तरण कर प्रवरपुर बनाया।
  • इसने अपने पुत्र नरेंद्र सेन का विवाह कुंतल राजकुमारी अजित भट्टारिका से करवाया
  • कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय के दरवार में विताएं।

नरेंद्र सेन (440 से 460 ई०)

प्रवरसेन द्वितीय के बाद से वाकटकों की शक्ति का पतन होना शुरू हो गया, नरेंद्र सेन के शासनकाल में नलराजा ने नरेंद्र सेन पर आक्रमण कर दिया परिणामस्वरूप युद्ध के आरंभिक चरण में तो नरेंद्र सेन हार गया पर अंत में यह जीत गया।

पृथ्वीसेन द्वितीय (460 से 480 ई०)

इसके शासनकाल में लगातार नालो और त्रैकूटकों के साथ संघर्ष चलता रहा, जिस कारण वाकटक राजवंश और भी कमजोर हो गया अंततः वाकटक राजवंश का पतन हो गया।

  • बालाघाट अभिलेख के अनुसार पृथ्वीसेन द्वितीय को परमभगवत की उपाधि दिया गया।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

  • राजा सर्वसेन ने हरिविजय नामक प्राकृत काव्य की रचना किया
  • संस्कृत के विदर्भ शैली का पूर्ण विकास हुआ
  • अजंता के गुफा संख्या 16 और 17 में विहार बनवाएँ तथा गुफा संख्या 19 में इन्होने चैत्य का निर्माण करवाया।

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