उत्तर वैदिक काल का इतिहास : Uttar Vaidik kal

जिस काल की जनकारी मुख रूप से सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, ब्रहाण ग्रन्थ, अरण्यक एवं उपनिषद आदि से प्राप्त होती है उसे उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) कहा जाता है। उत्तर वैदिक काल की मानक अवधि 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक माना गया है। यह काल आर्यों के जीवन में स्थिरता लाया क्योंकी पशुपालन की जगह कृषि का महत्त्व बढ़ गया।

उत्तर वैदिक काल (Uttar Vaidik Kal)

लगभग 1000 ईसा पूर्व में यानी की उतर वैदिक काल के आरम्भ में ही भारत में लोहे की खोज हुई जोकि सम्पूर्ण व्यवस्था में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाया क्योंकी लोहे, तांबा एवं कांसे की तुलना में मजबूत होता है अतः इसका इस्तेमाल कर मजबूत औजार बनाए जाने लगा। जिससे कृषि व्यवस्था का तेजी से विकास हुआ और लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में भी तेजी से सुधार होने लगा।

विस्तार

उत्तर वैदिक काल में आर्यों का वर्णन शतपथ ब्रह्मण के ‘विदेह माधव’ की कथा में मिलता है। आर्यों में ब्रह्मवर्त से आगे बढ़कर गंगा, युमना तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में बसे और उसका नाम ब्रह्मर्षि रखा। तथ्य पश्चात् हिमालय और विध्याचल पर्वत के मध्य क्षेत्र में भी बसने लगे और इसका नाम मध्य देश रखा। कालांतर में सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उनका प्रभुत्व हो गया जिसका नाम उन्होंने आर्यवर्त रखा।

राजनितिक

पहलीबार उत्तर वैदिक काल में क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ। पुरु एवं भरत कबीला मिलकर कुरु जनपद बना आसन्दिवत को इनकी राजधानी बनाई गई। जिसके अंतर्गत कुरुक्षेत्र आता था बाद में राजधानी बदलकर हस्तिनापुर कर दिया गया।

तुर्वस एवं क्रिवी कबीला मिलकर पंचाल बना. पंचाल की राजधानी कम्प्लीय थी। पंचालों में प्रसिद्ध पंचाल शासक ‘प्रवाहन जैवाली’ विद्वानों का संरक्षक था। शतपथ ब्राहमण के अनुसार पंचाल को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है शायद इसलिए क्योंकी यह उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) में सबसे विकसित राज्य था।

उत्तर वैदिक काल में प्रथम बार ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग हुआ क्योंकी ऋग्वैदिक काल में जो “जन” सामान्य अकार का हुआ करता था वह बहुत बड़ा हो गया और अब यह “जन” से जनपद कहा जाने लगा जोकि छोटे-छोटे जन से मिलकर बना होता था। जैसे की भरत तथा पुरु मिलकर कुरु जनपद बना था।

समाजिक जीवन की सबसे छोटी इकाई परिवार था जिसे की “कुल” भी कहा जाता था। कई सारे परिवार या कुल को मिलाकर एक “ग्राम” का निर्माण होता था, कई सारे ग्रामों को मिलाकर “विश” का निर्माण होता था, कई सारे विश को मिलाकर जन का निर्माण होता था और कई जनों को मिलाकर जनपद का निर्माण होता था जोकि सबसे बड़ा होता था।

परिवार या कुल > ग्राम > विश > जन > जनपद

ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में राजा का महत्त्व और शक्ति में वृद्धि हो गया अतः अलग-अलग दिशाओं के राजा का नाम अलग-अलग होने लगे। राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्रह्मण में मिलता है।

क्षेत्रराज्य का नामराजा का नाम
पूर्वसाम्राज्यसम्राट
पाक्षिमस्वाराजस्वराट
उत्तरवैराज्यविराट
दक्षिणभोज्यभोज
मध्य देशराज्यराजा

राजा का अधिकार बढ़ने से सभा और समिति नामक संगठन का महत्त्व कम हो गया अतः राजा पर इन संगठनों का नियंत्रण भी कम हो गया जोकि ऋग्वैदिक काल में सबसे अधिक प्रभावशाली हुआ करता था। उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) में राजतन्त्र ही शासन का आधार बन गया किन्तु कहीं कहीं गणतंत्र के उदाहरण भी मिलते थे।

राजा का राज्यभिषेक ‘राजसूर्य यज्ञ’ के द्वारा सम्पन होता था जिसका वर्णन शतपथ ब्रह्मण में किया गया है।

राजा की सहायता के लिए अधिकारीयों की नियुक्ति किया जाता था जिसे ‘रत्तनी’ कहा जाता था इनकी संख्या करीब 12 हुआ करती थी। इन अधिकारिओं में पुरोहित का पद सबसे महत्वपूर्ण था इसके अलावे और भी अधिकारी के पद होते थे जिसका प्रयोग राजा अपने हित में करते थे।

कर (टैक्स) व्यवस्था का विस्तार हुआ अतः प्रजा जो पहले कर उपहार के रूप में स्वेच्छा से देते थे उसे नियमित कर दिया गया मतलब की अब राजा को कर देना अनिवार्य हो गया। कर को बलि, शुल्क या भाग कहा जाता था जोकि 1/6 भाग होती थी।

समय के साथ लोगों के बीच अधिक युद्ध होने लगा अतः इससे निपटने के लिए सैनिको की संख्या में वृद्धि होने लगा, परंतु सेना अभी भी स्थाई नहीं होती थी हालाँकि आंशिक रूप से स्थाई सेना का विकास होने लगा था। पहले की तरह ही युद्ध के दौरान आम लोग ही सैनिकों की तरह लड़ते थे और जब युद्ध ख़त्म हो जाता था तो लोग अपने सामान्य कार्य जैसे की कृषि व पशुपालन का कार्य में लग जाते थे।

उत्तर वैदिक काल में राजा न्याय का सर्वोच्य अधिकारी हो गया जबकि ऋग्वैदिक काल में राजा को कोई भी न्यायिक अधिकार नहीं था। न्यायिक अधिकार होने के बाद भी इस काल में ब्राहमण को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था।

समाज (Uttar Vaidik Kalin Samaj)

उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था वर्णाश्रम पर आधारित था यधपि वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगा। वर्णों में चार वर्ण ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हुआ करते थे जिसका निर्धारण जन्म के आधार पर होने लगा जबकि ऋग्वैदिक काल वर्ण व्यस्वथा कर्म पर आधारित होता था।

वर्णों में तीन वर्ण ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को ही उपनयन संस्कार के अधिकार होते थे अतः यही से शूद्रों को अछूत मानने की प्रक्रिया शुरू हुई। समाज में रथकार का स्थान ऊँचा था और इन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार था।

गोत्र शब्द की उत्पत्ति उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) में हुआ इसका अर्थ होता है गौ धन को एकत्र करना सामान गोत्र में विवाह प्रथा का निषेध था यानी की सामान गोत्र में विवाह नहीं किया जा सकता था।

यज्ञ अनुष्ठानों के वृद्धि हो जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्तियों के अपार वृद्धि हुई अनुष्ठानों के बदले ब्राह्मणों को अधिक दान मिलने लगें अतः इन्हें अदायी (दाने लेने वाला) और सोमपाई (भ्रमण करने वाला) कहा गया।

ऐतरेय ब्राह्मण में चरों वर्णों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है इस अनुसार इस काल में केवल वैश्य ही कर देते थे और ब्राह्मण व क्षत्रिय उन्ही से प्राप्त राजस्व पर जीते थे शुद्र का कार्य अन्य वर्णों की सेवा करना था।

ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को सभी दुखों का कारण तथा पुत्र को परिवार का रक्षक बताया गया है।

आश्रम व्यवस्था की शुरुआत इसी काल में हुआ था इस कल में मानव जीवन को 25-25 वर्षो के चार भागों में विभाजित कर दिया गया।

  • ब्रह्मचर्य (0- 25 वर्ष) इस अवस्था में मुख्य रूप से शिक्षा तथा कुछ सिखने से संवंधित होगा
  • गृहस्त (25- 50 वर्ष)इस अवस्था में मुख्य रूप से परिवार आगे बढाने या वंश उतप्पति से संवंधित होगा
  • वान्यप्रस्त (50- 75 वर्ष) इस अवस्था में मुख्य रूप परिवार से अलग होकर जीवन वितायेगें अर्थात ब्रह्मचर्य अवस्था वाले लोगों शिक्षा प्रदान करेंगे
  • संन्यास (75- 100 वर्ष) वान्यप्रस्त जीवन जी लेने बाद अंत में एकांत वास करेंगे और केवल धार्मिक कार्य करेंगे

सामाज से जुड़े अन्य तथ्य

  • इन आश्रमों में ग्रहस्त जीवन को सबसे श्रेष्ठ माना गया है
  • पर्दा प्रथा की प्रचलन की शुरुआत हुआ
  • शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों तरह के भोजन करते थे
  • मनोरंजन के लिए जुआ खेलना, शराव पीना, घुडदौर करना आदि करतें थे।
  • इस कल में 8 प्रकार के विवाह प्रचलन था जिसमे अनुलोम विवाह तथा विलोम विवाह प्रचलित थी।

आर्थिक स्थिति

लोहे की खोज हो जाने के कारण कृषि व्यवस्था का तेजी से विकास हुआ अतः पशुपालन की जगह कृषि आर्थिक जीवन का मूल आधार बन गया हालाँकि पशुपालन दूसरा प्रमुख व्यावसाय बना रहा।

यजुर्वेद में लोहे के लिए श्याम अयस एवं कृष्ण अयस का प्रयोग किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में कृषि के चार प्रक्रिया जुताई, बुआई, कटाई एवं मड़ाई का उल्लेख मिलता है।

कृषि में धान एवं गेहूँ मुख फसल था। युजर्वेद में ब्रीहि (धान), यव (जौ), माण (उड़द), मुदग (मुंग), मसूर आदि आनाजों का वर्णन मिलता है।

कान्ठक संहिता में 24 बैलों बाला हल का वर्णन मिलता है जो दर्शाता है की लोहे की खोज के कारण कृषि की भूमिका किस प्रकार से बढ़ गया था।

लोहे की खोज के कारण कृषि का कार्य बड़े पैमाने पर किए जाने लगा और अनाज का अधिक उत्पादन करने लगे जिससे अधोग एवं व्यापार का भी विकास हुआ यहाँ से विदेशी व्यापार के प्रमाण भी मिले है परंतु अभी भी मुद्रा की खोज नहीं हुआ था।

आर्थिक प्रगति के कारण उत्तर वैदिक काल में नगरीकरण व्यवस्था का शुरुआत हुआ इसे दूसरी नगरीकरण का काल बोला जाता है क्योंकी पहली नगरीकरण का विकास सिन्धु घाटी सभ्यता में हुआ था।

उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) में लोग चार प्रकार के मृदभांडो काला व लाल मृदभांड, काले पॉलिशदार मृदभांड, चित्रित धूसर मृदभांड एवं लाल मृदभांड से परिचित थे।

इस काल में आयों को समुद्र का ज्ञान हो था क्योंकी इस काल के साहित्य में पूर्वी और पक्षमी दोनों प्रकार के समुद्रों का वर्णन किया गया है। 

धार्मिक स्थिति

उत्तर वैदिक कालीन आर्यों के धार्मिक जीवन में मुख्यतः तीन परिवर्तन देखने को मिलता है देवताओं की महत्ता, रीती रिवाज तथा धार्मिक उद्देश्यों में वृद्धि।

धार्मिक कर्म-कांड का महत्त्व बढ़ जाने के कारण ब्राहमण तथा क्षत्रिय दोनों चाहते थे की समाज में उनका महत्त्व (वर्चस्व) अधिक रहे अतः इस काल के अंत में ब्राहमण तथा क्षत्रिय के बीच संघर्ष भी देखने को मिला।

उत्तर वैदिक कला में इंद्र के स्थान पर सृजन के देवता प्रजापति अधिक लोकप्रिय देवता थे। वरुण केवल जल के देवता माने जाने लगें जबकि पूषन अब शूद्रों के देवता हो गए। रूद्र और विष्णु दोनों प्रमुख देवता इसी काल के माने जाते हैं।

देवताकार्य
विष्णुपोषण एवं संरक्षक के देवता
रूद्रपशुओं की देवता
वरुणजल के देवता
पूषणशुद्रो के देवता

सभी वेदों के अलग-अलग पुरोहित हो गए अर्थात इनके पाठकर्ता जैसे की ऋग्वेद का पुरोहित होतृ/होता, सामवेद का पुरोहित उद्द्गाता/ उद्द्गातृ, अर्जुवेद का पुरोहित अध्वर्यु और अर्थवेद क पुरोहित ब्रह्मा कहा जाने लगा।

बड़े-बड़े यज्ञ कराए जाने लगा, जिसमे कर्म-कांड (दान करना, बलि देना) का बड़ा महत्त्व होता था। उत्तर वैदिक काल (uttar vaidik kal) में अनेक प्रकार के यज्ञ प्रचलित थे जिसमे अश्वमेघ यज्ञ, वाजपेयी यज्ञ एवं राजसूर्य यज्ञ महत्वपूर्ण यज्ञ थे।

  • राजसूर्य यज्ञ – यह प्रतिष्ठा हेतु कराया जाता था
  • वाजपेयी यज्ञ – शक्ति को प्रदर्शन करने के लिए किया जाता था
  • अश्वमेध यज्ञ  – राज्य के विस्तार के लिए घोड़ा छोड़ा जाता था

नोट – यही कर्म-कांडो की वजह में समाज में एक नई विचारधार को जन्म दिया जिससे बौद्ध तथा जैन धर्म तेजी से फले फूलने लगा।

मृत्यु के चर्चा सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में, मोक्ष की चर्चा सर्वप्रथम उपनिषद में तथा पुर्नजन्म की अवधारणा वृहदराण्यक उपनिषद में किया गया है।

नोटनिष्काम कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन सर्वप्रथम इशोपनिषद में किया गया है।

नदियों के प्राचीन नाम और उसके आधुनिक नाम

प्राचीन नदीआधुनिक नाम
वितस्ताझेलम
परुषणीरावी
कुभाकाबुल
क्रुभकुर्रम
आस्किनीचिनाव
शतुद्रीसतलज
विपाशाव्यास
सदानीरागंडक
द्रुसद्धतीघग्घर
गोमतीगोमल
सुवास्तुस्वात

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