Tamra Pashan Kal : भारत में सिन्धु क्षेत्र के बाहर अनेकों प्रकार के ग्रामीण संस्कृतियाँ विकसित थी, उन्ही में से एक था ताम्र पाषाणिक संस्कृति। इस संस्कृति का विस्तार मुख्य रूप से दक्षिण पूर्वी राजस्थान, पक्षिमी मध्य प्रदेश, पक्षिमी महारास्ट्र और दक्षिणी पूर्वी भारत में था।
ताम्रपाषाण काल (5000 ईसा पूर्व से 4000 ईसा पूर्व)
इस संस्कृति की शुरुआत नव पाषाण काल के तुरंत बाद और वैदिक युग के माना जाता है। नव पाषण काल के अंतिम चरण में मानव द्वारा धातुओं के प्रयोग का प्रचालन शुरू हो गया था। धातुओं में ‘ताम्बे’ को मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयोग में लाया गया अर्थात कह सकते हैं की जिस काल में मानव के द्वारा पत्थर व हड्डियों के बने औजारों के अलावे ताम्बे के बने औजारों का प्रयोग व्यापक रूप से करना शुरू हुआ, उस काल को ताम्र पाषण काल कहा गया।
ताम्बे का प्रयोग लगभग 5000 ईसा पूर्व से ही किया जाने लगा। ताम्बे के प्रयोग से सबसे पहले कुल्हाड़ी को बनाया जिसका प्रमाण अतिरम्प्क्कम (मद्रास) से प्राप्त हुआ, स्पस्ट है की 5000 ईसा पूर्व भारत में नव पाषाण काल का दौर था अतः नव पाषणकालिन लोग भी ताम्बे से परिचित रहें होंगे।
ताम्र पाषाण युग के लोग समतल मैदान, पहाड़ी क्षेत्र और नदी के किनारे समुदाय बनाकर वस्तियों में निवास करतें थे। इतिहासकारों का मानना है, की लोगों अपने घरों के निर्माण के लिए पक्की ईंटो का प्रयोग नहीं करतें थे, संभवतः लोग पक्की ईंटो से परचित नहीं होंगे।
भारत में प्रथम ग्रामीण सभ्यता की स्थापना ताम्रपाषाण काल (tamra pashan kal) लोगों के द्वारा किया गया हालाँकि दैमाबाद तथा इनामगांव दो ऐसे ताम्र पाषणिक स्थल थे जहाँ नगरीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी।
ताम्र पाषण काल में कृषि प्रथम एवं पशुपालन दूसरा प्रमुख व्यवासाय था। कृषि में मुख्य रूप से गेहूँ,, चावल इसके अलावे बाजरा, मसूर, उड़द, और मुंग यादी का उत्पादन करतें थे तथा पशुपालन के क्षेत्र में गाय, भैस, बकरी, भेड़, सूअर आदि का पालन करते थे| इनके व्यवासायों के कारण इन्हें कृषक, पशुचरिक व क्षेत्रीय संस्कृति भी कहा जाता है। लोग ऊँटों से भी परिचित थे किन्तु घोड़े से परिचित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलाता।
ताम्र पाषाणिक काल के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे और वृषभ (साढ़) इनका धार्मिक प्रतीक था इसके अलावे अग्नि पूजा का भी प्रचालन था।
प्रमुख स्थल
राजस्थान (अहाड़, गिलुंद, बालाथल), मध्य प्रदेश (मालवा, कायथा, ऐरण, नवदाटोली), महारास्ट्र (जोर्वा, नेवासा, दैमाबाद, इनामगांव), बलूचिस्तान (मेहरगढ़, नाल, कुल्ली, क्वेटा), बंगाल (वीरभूमि, वर्दमान, मिदनापुर), सिन्धु, (आमरी, कोटदिजियन), बिहार (चिरांद), उत्तर प्रदेश (आतरंजी खेड़ा) आदि।
इनमे से राजस्थान का आहाड़ संस्कृति, महाराष्ट्र का जोर्वे संस्कृति तथा मध्य प्रदेश का मालवा एवं कायथा संस्कृति महत्वपूर्ण है क्योंकि ये सभी संस्कृतियाँ अपने आस-पास के छोटी-छोटी संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती है।
अहाड़ संस्कृति या बनास संस्कृति
अहाड़ संस्कृति को बनास संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है ऐसा इसलिए क्योंकि इस संस्कृति का विकास बनास नदी के किनारे हुआ| ये संस्कृति राजस्थान की गिलुंद, बालाथल आदि ग्रामीण संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती है।
अहाड़ संस्कृति का प्राचीनतम नाम तम्बावती अर्थात ताम्बे वाली जगह है, गिलुण्दको इस संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना जाता है।
लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे, यहाँ से ताम्बे की कुल्हाड़ियाँ, ताम्बे की चुडियाँ व कई तरह के चादरे, पक्की हुई इंटों (गिलुण्द) की प्राप्ति हुई है।
मालवा संस्कृति
मालवा संस्कृति, अहाड़ संस्कृति की उत्तराधिकारी संस्कृति थी, इसकी सबसे प्रमुख विशेषता ‘मालवा मृदभांड’ मृदभांड अर्थात मिट्टी के बने वर्तन जोकि ताम्र पाषाणिक मृदभांडो में सबसे उत्कृष्ट (बेहतर) माना जाता है।
मालवा संस्कृति मध्य-भारत के मालवा क्षेत्र तथा महाराष्ट्र के दक्कन प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों में मौजूद थी। माहेश्वर, नागदा, एरण, कायथा, नवादाटोली आदि इस संस्कृति के प्रमुख स्थल हैं।
कायथा संस्कृति
यहाँ से प्राप्त मृदभांडो पर प्राकहड़प्पा (पूर्व हड़प्पा), हड़प्पा तथा हड़प्पायोत्तर संस्कृति का स्पस्ट प्रभाव देखने को मिलता है।
कायथा से स्टेटाइट तथा कार्नेलियन जैसे बहुमूल्य पत्थरों के गोलियों के हार (आभूषण) पात्र में जामा की हुई प्राप्त हुई है।
जोर्वे संस्कृति
जोर्वे संस्कृति ग्रामीण संस्कृति थी किन्तु इसके कई बस्तियां जैसे की दैमाबाद तथा इमामगंज में नगरीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। यह महाराष्ट्र के नेवासा, दैमाबाद, इनामगांव इत्यादि ग्रामीण संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करती है।
- दैमाबाद – दैमाबाद से रथ चलाते हुए मनुष्य की मूर्ति, भैस, गैंडा, ताम्बे का रथ तथा हाथी की आकृतियाँ मिली है।
- इमामगंज – इनामगांव सबसे बड़े बस्ति थी जोकि किलेबंद व घिरी हुई थी।
ताम्र पाषणिक ग्रामीण स्थलों में एच० डी० आकलिया द्वारा उत्खनित नवदाटोली से सर्वाधिक कृषि के साक्ष्य मिलें है।
FAQ Section :
राजस्थान (अहाड़, गिलुंद, बालाथल), मध्य प्रदेश (मालवा, कायथा, ऐरण, नवदाटोली), महारास्ट्र (जोर्वा, नेवासा, दैमाबाद, इनामगांव), बलूचिस्तान (मेहरगढ़, नाल, कुल्ली, क्वेटा), बंगाल (वीरभूमि, वर्दमान, मिदनापुर), सिन्धु, (आमरी, कोटदिजियन), बिहार (चिरांद), उत्तर प्रदेश (आतरंजी खेड़ा) आदि।
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