सिन्धु घाटी सभ्यता का इतिहास : Sindhu Ghati Sabhyata

Sindhu Sabhyata का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी तथा पक्षिमी भाग में हुआ, यह सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में नगरीय क्रांति के अवस्था को दर्शाती है।

20 शताब्दी के शुरुआत तक इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं का ये मानना था की वैदिक सभ्यता ही भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है लेकिन 1921 ई० में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा की खुदाई की गई तो एक नई सभ्यता होने का साक्ष्य मिला जिससे की भारत का इतिहास ही बदल गया।

सिन्धु घाटी सभ्यता सूची

  • हड़प्पा का उदय
  • निर्माता
  • नामकरण
  • समय निर्धारण
  • विस्तार
  • नगर निर्माण योजना
  • सामाजिक व राजनीतिक जीवन
  • आर्थिक स्थिति
  • धार्मिक स्थिति
  • पतन के कारण

अब क्योंकी सबसे पहले हड़प्पा का उत्खनन किया गया इसलिए इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता का नाम दिया गया हालाँकि इसे सिन्धु सभ्यता, सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) आदि भी कहा जाता है।

Sindhu Ghati Sabhyata

जब चार्ल्स मैसन 1826 ई० में उस समय के भारत और वर्तमान के पकिस्तान क्षेत्र का दौरा किया तो इन्होने यह अनुमान लगाया की इस क्षेत्र में कोई सभ्यता रही होगी। इसकी जानकारी इन्होने अपनी पत्रिका “नैरेटिव ऑफ़ जर्नी” में व्यक्त किए और यह लेख धीरे-धीरे लोगों के बीच फैलनी शुरू हुई।

अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1853-56 ई० में पहली बार इस क्षेत्र के बारे में शोध करने का प्रयास किया किन्तु इस सभ्यता के बारे में पुरे व्यवस्थित तरीके जनकारी नहीं दे पायें यानी इनका प्रयास असफल रहा।

1856 ई० में ब्रंटन बन्धु (जॉन ब्रंटन तथा विलियम ब्रंटन) के नेतृत्व में कराँची और लाहौर के बीच जब रेलवे के पटरियाँ बिछाने का काम किया जा रहा था तब वहाँ से ईटें मिलने लगी। लोगों को इन ईटो के बारे में कुछ भी जनकारी नहीं थी अतः इन ईटें को इन्होने रेलवे के ट्रैक बनाने के लिए प्रयोग करने लगें।

कई अटकलों के बाद, भारतीय पुरातात्विक विभाग के अध्यक्ष रहे सर जॉन मार्शल के निर्देशन में 1921 ई० में इस क्षेत्र में खुदाई का कार्य प्रारंभ किया गया और खुदाई के काम का जिम्मा दो भारतीय दयाराम साहनी और राखल दास बनर्जी को सौंपा गया, इन्ही के देख-रेख में उत्खनन कार्य करवाया गया।

1921 ई० में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा तथा 1922 ई० में राखल दास बनर्जी के नेतृत्व में मोहनजोदड़ो का उत्खनन किया गया। पहलीबार हड़प्पा का उत्खनन किये जाने के कारण, इसे हड़प्पा सभ्यता कहा गया।

उत्खनन से प्राप्त साक्षों के आधार पर, यहाँ से प्रथम बार नगरीय व्यवस्था का प्रमाण मिला इसलिए इसे भारत का प्रथम नगरीकरण सभ्यता कहा जात है।

गॉर्डोन चाइल्ड ने भी अपनी पुस्तक The Urban Revolution में भी सिन्धु सभ्यता को प्रथम नगरीय क्रांति कहा।

मोहनजोदड़ो से सर्वाधिक कंकालों की प्राप्ति हुई इसलिए मोहनजोदड़ो को मृतिको का टीला कहा गया।

इस सभ्यता के निर्माता (Sindhu Sabhyata ke Nirmata)

प्राप्त कंकालों के परिक्षण से प्राप्त जनकारीयों के अनुसार यहाँ चार प्रजातियाँ भुमध्सागरीय, ऑस्ट्रेलॉइड, अल्पाइन और मंगोलाइड निवास करती थी।

जिसमे भुमध्सागरीय प्रजाति की संख्या अधिक हुआ करती थी जिसका सबंध द्रविड़ जाति से था और संभवतः द्रविड़ ही सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) का निर्माता रहे होंगे। लेकिन कुछ विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता का निर्माता अलग-अलग लोगों को माना है जैसे कि –

ब्रिटिश काल में हुए खुदाइयों के अधार पर पुरातत्वेत्ताओं और इतिहासकारों का ये अनुमान है की हड़प्पा सभ्यता के नगर कई बार बसे और उजड़े होंगे।

हड़प्पा सभ्यता के अब तक कई स्थल खोजे जा चुके हैं जिसमे 917 स्थल भारत में, 481 पाकिस्तान में तथा 2 स्थल अफगानिस्तान में खोजे गए है हालाँकि नए खोजों के बाद इनकी संख्या बढ़ती रहती है।

दिसंबर 2014 में “भिरडाणा” हड़प्पा सभ्यता का अबतक के खोजा गया सबसे प्राचीन नगर है। हड़प्पा भारत में खोजा गया पहला पुराना शहर था। जोकि विभाजन के बाद पाकिस्तान चला गया।

इस सभ्यता के निर्माण के बारे में दो मत है –

  1. विदेशी मत
  2. देशी मत (स्थानीय मत)

विदेशी मत – मुख्य रूप से विदेशी इतिहासकारों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का निर्माण सुमेरियन सभ्यता के लोगों ने किया और यही लोग यहाँ आकर वसे

विदेशी इतिहारकारों का तर्क – विदेशी इतिहासकारों का मानना था की सिन्धु सभ्यता के भवन, मुहर तथा कुछ धार्मिक परम्परा सुमेरियन सभ्यता से मिलती है।

स्थानीय मत – स्थानीय तथा कुछ विदेशी इतिहासकार के अनुसार सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) का निर्माण भारतियों ने ही किया।

स्थानीय इतिहारकारों का तर्क – स्थानिय इतिहारकारों ने बताया की सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के भवन तथा सुमेरियन सभ्यता के भवन एक जैसे जरुर है किन्तु भवनों में प्रयोग किए जानेवाले ईटें का आकार अलग-अलग है इसके अलावे भवनों में नालियों की व्यावस्था व मुहरों की गुणवत्ता भी अलग-अलग हैं।

इस पर राखल दास बनर्जी का कहना है की इस सभ्यता के निर्माता द्रविड़ जाति के लोग थे और इसी मत को सबसे अधिक महत्त्व भी दिया जाता है।

नोट सर्वप्रथम बी० बी० लाल ने कहा की सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग और ऋग्वैदिक आर्य दोनों एक ही थे।

इस सभ्यता का नामकरण

सिन्धु सभ्यता के नाम को लेकर इतिहासकारों के बीच कहीं न कहीं मतभेद रहा है अतः इतिहासकारों तथा विद्वानों द्वारा इस सभ्यता को अन्य कई नामों से भी संवोधित किया जाता है जैसे कि – हड़प्पा सभ्यता, सिन्धु सभ्यता तथा सिन्धु-सरस्वती आदि। इतने नाम ऐसे ही नहीं रख दिया गया है वल्कि इसके पीछे भी अलग-अलग तर्क भी दिए गये हैं।

हड़प्पा सभ्यता

पुरातत्व की परम्परा के अनुसार किसी सभ्यता नामकरण उसके प्रथम उत्खनित स्थल के नाम पर रखा जाता है, जिसका उत्खनन सबसे पहले हुआ हो। अब क्योंकि दयाराम साहनी के नेतृत्व में सबसे पहले हड़प्पा का उत्खनन किया गया इसलिए इसे हड़प्पा सभ्यता (hadappa sabhyata) कहा गया।

सिन्धु घाटी सभ्यता

इतिहास में यह भी प्रचालन रहा है की कोई भी सभ्यता जिस नदी के किनारे पाया जाता था। उस सभ्यता का नाम उसी नदी के नाम पर दे दिया जाता था। जैसे की नील नदी की सभ्यता. हान्ग्हो नदी की सभ्यता आदि।

प्रारंभ में दयाराम सहानी के नेतृत्व में जब इसका उत्खनन कराया जा रहा था तो इस सभ्यता से जुड़े सभी स्थल सिन्धु नदी और उसके सहायक नदीयों के आस-पास मिल रहे थे। इसलिए इसे सिन्धु सभ्यता या सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) का नाम दिया गया।

सिन्धु-सरस्वती सभ्यता

बाद में जैसे-जैसे इसका उत्खनन करवाया गया तो इस सभ्यता के स्थल सिन्धु नदी के किनारे ही नहीं वल्कि सरस्वती नदी के तट पर भी पाया गया। इसलिए इसे सिन्धु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया गया।

कांस्य सभ्यता

यह सभ्यता अन्यंत ही विकसित व विशाल, नगरीय सभ्यता थी। यहाँ के निवासियों द्वारा पत्थर व कांस्य के बने उपकरणों का उपयोग किया जाता था। प्रथम बार कांस्य का इस्तेमाल किए जाने के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता जाता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता को तृतीय कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है, कांस्य युग की दो अन्य सभ्यताएँ मिश्र की सभ्यता और मेसोपोतामियाँ की सभ्यता है।

समय का निर्धारण

सिन्धु घाटी सभ्यता के काल का निर्धारण पूरी तरह से पुरातत्विक स्रोत्रों के आधार पर किया गया है किसी भी लिखित स्रोत्र के आधार पर नहीं, परिणाम स्वारूप अलग-अलग खोजकर्ताओं ने अपने अनुसार इसके काल का निर्धारण किया है जैसे की –

सर्वप्रथम सर जॉन मार्शल ने 1931 ई० में इस सभ्यता के काल का निर्धारण किया। मेसोपोटामिया (सारगोन) सभ्यता के एक अभिलेख के अनुसार 3250 से 2750 ईसा पूर्व तक सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के काल को बताया जाता है।

C-14 कार्बन के विश्लेषण के आधार पर भारतीय पुरातात्वेता डी० पी० अग्रबाल द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता की तिथि 2350 से 1750 ईसा पूर्व तक मानी गई और इसी समय अवधि को मुख्य रूप से सिन्धु घाटी सभ्यता का समय माना गया।

नोट – रेडियो कार्बन डेटिंग विधि 1949 ई० में विलार्ड फ्रैंक लीबी ने विकसित की इसके लिए लीबी को 1960 ई० में नोबेल पुरस्कार दिया गया।

सम्पूर्ण सभ्यता को चार भागों में विभाजित किया जाता है

  1. पूर्व हड़प्पा (नवपाषाण युग, ताम्र पाषण युग) (7570-3300 ईसा पूर्व) इस काल को प्रारंभिक खाद्य उत्पादक युग कहा जाता है।
  2. प्रारम्भिक हड़प्पा (आरंभिक कांस्य युग) 3300-2600 ईसा पूर्व इस काल को क्षेत्रीयकरण युग कहा गया है।
  3. परिपक्व हड़प्पा (मध्य कांस्य युग) 2600-1900 ईसा पूर्व इस काल को एकीकरण युग कहा गया है।
  4. उत्तर हड़प्पा (समाधि एच, उत्तरी कांस्य युग) 1900-1300 ईसा पूर्व इसे प्रवास युग कहा गया है।

विस्तार (Sindhu Sabhyata ka Vistar)

ब्रिटिश शासनकाल के दौराण इस सभ्यता से जुड़े विभिन्य स्थलों का उत्खनन करवाया गया और उत्खनन से प्राप्त साक्षों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया की यह भारत की ही नहीं वल्कि विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं जैसे की मिस्र की सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता तथा चीन की सभ्यता में से एक है।

इतना ही नहीं वल्कि यह भी कहा गया की सिन्धु घाटी सभ्यता इन सभी सभ्यताओं से विशाल और विस्तृत सभ्यता है और जैसे-जैसे इसका उत्खनन करवाया गया इसका क्षेत्रफल बढ़ता ही गया।

लगभग हर स्रोत्रों के द्वारा प्रकाशित की गई जनकारी के अनुसार इसके विस्तार के बारे में अलग-अलग बताया गया है। कुछ स्रोत्रों के अनुसार अगर मिस्र की सभ्यता और नील नदी की सभ्यता के क्षेत्रफल को भी आपस में मिला दिया जाय तो भी सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) का विस्तार उससे 12 गुणा अधिक था।

सिन्धु घाटी सभ्यता का विस्तार उत्तर में मांड (जम्मू-कश्मीर) दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र), पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश), पक्षिम में सुत्कान्गेडोर (बलूचिस्तान) तक है। पूर्व से पक्षिम तक की लम्बाई 1600 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक की चौड़ाई 1400 किलोमीटर था।

इसका आकार त्रिभुजाकार था और यह लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर में फैला था। सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के स्थल तीन देशों भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिलते हैं। भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान पहले भारत का ही भु-भाग रहा था।

भारत के सन्दर्भ में गुजरात, राजस्थान, हरियाण, पंजाब, पक्षिमी उत्तर प्रदेश, महारास्ट्र और जम्मू कश्मीर तक इस सभ्यता का विस्तार था।

ब्रिटिश काल के दौराण इस सभ्यता के लगभग 40-50 स्थलों को ही खोजा गया था लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अबतक लगभग 1500 स्थल खोजे जा चुके है। जिसमे 900 से अधिक स्थल भारत से, लगभग 500 स्थल पाकिस्तान से तथा 2 स्थल अफानिस्तान से मिले हैं। स्वतंत्रता के बाद सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के सबसे अधिक स्थल भारत के गुजरात राज्य में खोजे गये है।

नगर निर्माण योजना

सिन्धु सभ्यता अत्यंत ही विकसित एवं विस्तृत सभ्यता थी, पुरात्विक स्रोत्रों के आधार पर, नगरीय सभ्यता होने का प्रमाण मिला है।

नगर निर्माण योजना एवं जल निकास प्रणाली इस सभ्यता की सबसे बड़ी विशेषता थी, नगरों के विकास के लिए ग्रिड पद्धति अपनाई गई।

सामान्य तौर पर पहले ग्रामीण सभ्यता का विकास होता है उसके बाद नगरीय सभ्यता का किन्तु भारत में सबसे पहले नगरीय सभ्यता आई उसके बाद ग्रामीण सभ्यता आई क्योंकी वैदिक सभ्यता जोकि एक ग्रामीण सभ्यता थी वह सिन्धु सभ्यता के बाद आई।

नोट – ताम्र पाषण काल में भारत में ग्रामीण सभ्यता की शुरुआत हुआ था किन्तु वहाँ भी दो दैमाबाद तथा इनामगांव में नगरीकरण की प्रक्रिया देखने को मिलता है।

नगर विन्यास

नगर नियोजन के लिए प्रत्येक नगर दो भागो में विभक्त था।

  • पक्षमी टीलें
  • पूर्वी टीलें

पक्षमी टीलें – यह आकार में छोटा होता था पर ऊँचाई पर स्थिति होता था। इस पर बने दुर्ग को नगर दुर्ग कहा जाता था जोकि सामान्तः आयताकार आकार के होते थें और यहाँ प्रशासक वर्ग के लोग रहते थे।

पूर्वी टीलें – यह निचला नगर था जहाँ से आवास के साक्ष्य मिले है यह नगर दुर्ग के अपेक्षाकृत बड़े होते थे और यहाँ सामान्य लोग जैसे व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर एवं मजदुर वर्ग के लोग रहते थे।

हड़प्पा कालीन नगरों के चरों ओर रक्षा प्राचीर (बाउंड्री) के भी प्रमाण मिलें है. संभवतः आक्रमण, लुटेरो तथा पशु चोरों से सुरक्षित रखना इसका उद्देश्य रहा होगा।

हालाँकि लोथल एवं सुरकोटदा के दुर्ग और नगर (पक्षमी टीलें और पूर्वी टीलें) दोनों एक ही रक्षा प्राचीर (बाउंड्री) से घिरा होता था।

सड़क

नगर निर्माण के लिए ग्रिड पद्धति (जाल पद्धति) अपनाई गयी थी और यह पद्धति सभी वस्तियों पर लागू होती थी अर्थात वस्ति बड़ी हो या छोटी। मुख्य सड़के उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पक्षिम तक जाती थी और एक दुसरे को समकोण (90 डिग्री) पर काटती थी।

सड़के और गलियों के बनाबट को देखकर यह अनुमान लगाया जाता है, कि किसी खास योजना के तहत पहले सड़के और नालियों को बनाया होगा। उसके बाद घरों का निर्माण किया गया होगा। तभी तो सड़के बिल्कुत सीधी होती थी और एक दुसरे को समकोण पर काटती होगी।

सड़के कच्ची तथा पक्की दोनों तरह के ईंटो से बनी होती थी। मोहनजोदाड़ो की सबसे चौड़ी सड़क लगभग 10 मीटर से कुछ अधिक चौड़ी थी। 

नालियाँ

लगभग सभी छोटे व बड़े घरों में प्रांगन और स्नानागार होता था जिसे गली व सड़क के किनारे बनाया जाता था ताकि आसानी से पानी का निकास हो सके।

घरों से पानी के निकास के लिए नालियाँ भी व्यावस्थित ढंग से बनाया गया था। नालियों को मिट्टी, जिप्सम और बजरी आदि के मिश्रण से जुडाई किया जाता था (नालियों को पत्थर के प्लेट से ढककर उसे जोड़ दिया जाता था)। ये नालियाँ खुली नहीं होती थी वल्कि ईंटो या पत्रों (प्लेट) से ढकी होती थी, जैसे की आज के समय में देखने को मिलता है।

भवन

हड़प्पा कालीन नगरों के भवन साधाराणतः छोटे-छोटे होते थे जिसमे चार से पांच कमरे होते थे हालाँकि कुछ विशालकाय दो मंजिले भवनों का भी निर्माण किया गया था।

घरों के दरवाजे एवं खिड़कियाँ मुख सड़क की ओर ना खुलकर पीछे गलियों में खुलते थे किन्तु अपवाद स्वरूप लोथल में दरवाजे एवं खिड़कियाँ मूख्य सड़क की ओर खुली होती थी।

नगरों में कुछ सर्वाजनिक भवन भी होते थे जैसे कि स्नानागार, अन्नागार आदि। प्रत्येक घरों में रसोईघर एवं स्नानागार होता था।

इंटें

नगर निर्माण योजना में ईंटो का प्रयोग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाया, क्योंकी सिन्धु सभ्यता के भवनों के अलावे सामान्य घरों में भी पक्की ईंटो का उपयोग किया गया था। इसके अलावे घरों में स्थित प्रांगन, स्नानागार एवं कुँए तथा नालियाँ भी पक्की ईंटो का बना होता था।

हालाँकि कालीबंगा और रंगपुर में कच्ची इंटों का भी प्रयोग किया गया। गाँवों की रक्षा के लिए पक्की ईंटो के दीवार लगाया गया था, जिससे अनुमान लगाया जाता है की यहाँ प्रति वर्ष बाढ़ आती होगी। 

सभी ईंटो का अनुपात 4:2:1 था। इनके अलावे अन्य अकार के इंटों का भी उपयोग किया जाता था लेकिन 4:2:1 अनुपात बाली आयताकार इंटे सर्वाधिक प्रचलित थी।

मेसोपोटामियां की सभ्यता के भवनों में भी पाक्की ईंटो का तो प्रयोग किया गया था किन्तु इतनी अधिक संख्या में नहीं किया गया है, जितना की सिन्धु सभ्यता के भवनों में किया गया था।

सिन्धु सभ्यता की समकालीन सभ्यता, मिस्र की सभ्यता के भवनों में धुप में पकी ईंटो का प्रयोग किया गया था।

सिन्धु सभ्यता से बड़े-बड़े भवन व इमारतें मिली है जिसमे स्नानागार, अन्नगार, सभा भवन, पुरोहित आवास, आदि प्रमुख है। अन्नगार सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़े ईमारत थी वहीँ विशाल स्नानागार, मोहनजोदड़ों का सबसे महत्वपूर्ण व सर्वाजनिक स्थल था।

केवल कालीबंगा से एक फर्श में अलंकृत ईंटों का प्रयोग किए जाने का साक्ष्य मिला है तथा कुछ दीवारों पर प्लास्टर के भी साक्ष्य मिले है।

स्नानागार की विशेषता

मोहनजोदड़ो से एक विशाल सर्वाजनिक स्नानागार मिला है जिसकी लम्बाई 39 फिट (11.8 मीटर), चौड़ाई 23 फिट (7.01 मीटर), गहराई 23 फिट (2.43 मीटर) थी, और इसके तल तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी होती थी।

स्नानागार के चारो तरफ पक्की ईटों का प्रयोग किया गया था, स्नानागार के ही बगल में वस्त्र बदलने के लिए कमरे बना होता था। स्नानागार के किनारे में बड़ा सा हौज बना होता था इसी हौज के माध्यम से स्नानागार के गन्दे पानी भरकर बहार निकाला जाता होगा। ऐसा माना जाता है की इस स्नानागार का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानो के लिए किया जाता होगा।

सामाजिक व राजनीतिक स्थिति

भारत की ही नहीं वाल्की विश्व की सबसे बड़ी विशाल और विकसित सभ्यताओं में से एक सिन्धु सभ्यता के लोगों का का सामाजिक तथा राजनितिक जीवन कैसा रहा होगा इस बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए केवल पुरात्विक स्रोत्रों ही उपलब्ध है अतः इस पर अलग-अलग इतिहासकारों द्वारा व्यक्त किये गए मत।

राजनितिक स्थिति

सिन्धु सभ्यता के राजनीतिक स्वरुप की कोई निश्चित जनकारी तो नहीं है किन्तु इसका व्यापक विस्तार एवं नियोजित नगरों को देखकर अनुमान लगाया जाता है। इस सभ्यता में, शासन पर पुरोहित वर्ग का प्रभाव रहा होगा। सिन्धु सभ्यता के लोगों ने सबसे ज्यादा ध्यान वाणिज्य और व्यापार में दिया करते थे संभवतः हड़प्पा का शासन व्यापारी वर्गों के हाथे में रहा होगा।

  • प्रसिद्ध इतिहासकार हन्टर के अनुसार यहाँ की शासन व्यवस्था जनतांत्रिक पद्धति से चलती होगी।
  • मैके के अनुसार सिन्धु सभ्यता में जनप्रतिनिधियों का शासन था।
  • स्टुअर्ट पिग्गट ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो को सिन्धु सभ्यता की जुड़वाँ राजधानी बताया है।
  • एस. आर. राव ने इस सभ्यता को विश्व के प्रथम महान साम्राज्य की संज्ञा दी है।

सामाज

समाज की इकाई परम्परागत तौर पर परिवार थी, मातृदेवी की मूर्ति व पूजा तथा मुहरों पर अंकित चित्र से यह अनुमान लगाया जाता है कि सैन्धव समाज मातृप्रधान या मातृसत्तात्मक रही होगी।

सिन्धु सभ्यता की सामाजिक पद्धति उचित समतावादी थी और समाज कई वर्गों में विभाजित था जैसे कि पुरोहित, व्यापारी, अधिकारी, शिल्पी, जुलाहे और श्रमिक आदि इन सभी वर्गों में व्यापारी वर्ग सबसे प्रभावशाली वर्ग रहा होगा।

आभूषण, सोने, चाँदी और माणिक्य के बने होंते थे जो मूल रूप से धनि वर्ग के लोग पहनते थे जबकि गरीब वर्ग के लोग शंख, शिप और मिट्टी के बने आभूषण पहनते थे। आभूषणों का प्रयोग महिलायों व पुरषों दोनों करते थे। शंख तथा हांथी के दांत का उपयोग अलंकरण तथा चुडीयाँ बनाने के लिए करते थे।

हड़प्पा वासी शांतिप्रिय लोग होंगे क्योंकि यहाँ से किसी प्रकार से शास्त्र जैसे तलबार, कवच आदि के साक्ष्य नहीं मिले हैं।

इस सभ्यता में संभवतः शाकाहारी और मंशाहारी दोनों तरह लोग के निवास करते थे और मिठास के लिए शहद का प्रयोग करतें थे।

लोगो सूती व ऊनि दोनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे।

लिपि

लेखन कला का आविष्कार भी सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के लोगों के द्वारा किया गया। सिन्धु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह तथा 250 से 400 तक अक्षर है इनमे मछली की चिन्ह सर्वाधिक प्रचलित थी। अधिकांस लिपि के नमूने सेलखड़ी की मुहरों पर मिले है इसके अलावे मृदभांडो (मिट्टी के वर्तन) पर भी मिले हैं।

सिन्धु सभ्यता की लिपि भावचित्रत्मक है अर्थात यह लिपि दाएँ से बाएँ की ओर लिखी जाती थी और फिर दूसरी पंक्ति बाएँ से दाएँ की ओर लिखी जा सकती है। लेखन की इस पद्धति को बोस्ट्रोफेदोन कहा गया।

पहली हड़प्पाई लिपि का नमूना 1853 ई में कनिंघम को मिला था। इस लिपि का प्रकाशन 1923 ई० में किया गया। सिन्धु लिपि को पढ़ने का सर्वप्रथम प्रयास 1925 ई० में ए०ए० वेदेन ने किया था किन्तु अभी तक सिन्धु लिपि पढ़ा नहीं जा सका है।

मनोरंजन

मनोरंजन के लिए नाचना, गाना-बजाना, जुआ खेलना, शिकार करना, मछली पकड़ना और पशु पक्षियों को आपस में लड़ाना, पासा इस युग का प्रमुख खेल था।

आर्थिक स्थिति

सिन्धु सभ्यता इतनी विकसित सभ्यता थी तो कहीं न कहीं इसके पीछे इसके आर्थिक क्षमताओं का भी बहुत बड़ा योगदान अवश्य रहा होगा।

इसके आर्थिक स्रोत्रों के रूप में कृषि, पशुपालन, आंतरिक एवं विदेशी व्यापार, उधोग, शिल्प कला आदि का योगदान था।

कृषि

सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) व्यापारिक प्रधान सभ्यता थी किन्तु आजीवका एवं अर्थव्यवस्था का मुख आधार समृद्ध कृषि व्यवस्था थी। इसके अलावे पशुपालन, भी लोगो के जीविका का आधार था।

हड़प्पा सभ्यता से ‘हल’ (फावला या फाल) के प्रमाण नहीं मिले हैं किन्तु कालीबंगा से ‘जूते हुए खेत’ के साक्ष्य मिले हैं। संभवतः लोग लकड़ी के ‘हलों’ का प्रयोग करते थे, हालाँकि बनाबली से मिट्टी के ‘हल’ जैसे खिलौनें की प्राप्ति हुई है।

सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) का अधिकांस भाग अर्धशुष्क क्षेत्र में पड़ता था और मिट्टी भी उर्वरा थी जिस कारण कृषि की पैदावार अच्छी होती थी। उर्वरक मिट्टी का मुख कारण था सिन्धु नदी में प्रतिवर्ष आने बाले बाढ़।

हड़प्पा, मोहनजोदाड़ो, लोथल एवं अन्य नगरों से अन्नगार के साक्ष्य मिलें है जोकि विकसित कृषि व्यवस्था की ओर इंगित (इशारा) करता है।  बलूचिस्तान से बांध तथा अफानिस्तान के शोतुर्गई से नहरों का साक्ष्य मिले हैं।

प्रमुख फसल

कृषि के क्षेत्र में गेहूँ और जौ प्रमुख फसल था किन्तु कपास के उत्पादन में भी अग्रणी थे। अब तक कुल नौ प्रकार की फसलों की पहचान की गई है जिसमे चावल, गेहूँ (तीन किस्मे), जौ (दो किस्मे), खजूर, तरबूज, मटर, राई, तिल, कपास। इसके अलावे अन्य कई प्रकार के फसलों से भी परिचित थी जैसे मटर, ज्वार, सरसों, तरबूज, खरबूजा, नारियल,केला, अनार, नींबू आदि किन्तु ईख (गन्ना) से अपरिचित थे।

सर्वप्रथम कपास की खेती शुरू करने का श्रेय सिन्धु वासियों को ही दिया जाता है। यूनानीयों सिन्डन या सिंडोन कहते थे क्योंकि इसका नाम सिन्धु नदी के नाम पर रखा गया था।

लोथल से चावल एवं बाजरे, बनवाली से जौ, तिल एवं सरसों के तथा हड़प्पा से गेहूँ एवं जौ के साक्ष्य मिले हैं।

समृद्ध कृषि व्यवस्था के कारण लोग आवश्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन कर पाते थे अतः भण्डारण के लिए बड़े-बड़े अन्नगारों का निर्माण करवाया गया था।

पशुपालन

पशुपालन में बैल, गाय, भैस, बकरी, भेड़, कुत्ता, बिल्ली, मोर, मुर्गी, सूअर, हाथी और गैंडे को पालते थे। पशुओं का इस्तेमाल आवश्यकता अनुसार कृषि के कार्य (जुताई), माल धुलाई, यात्रा के साधन (जैसे की वैलगाड़ी) आदि के रूप में करते थे।

लोथल एवं रंगपुर से घोड़े की मूर्तियाँ तथा सुरकोटदा से घोड़े के अस्थिपंजर प्राप्त हुए है किन्तु घोड़े के उपयोग का स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं संभवतः लोग घोड़े से परिचित नहीं होंगे। गुजरात के नेसदी नगर पशुपालन का प्रमुख केंद्र था।

नोट – ऊंट की अस्थि (हड्डी) कालीबंगा से प्राप्त हुए हैं।

शिल्प कला एवं धातु

सैन्धव वासी को ताम्बे और टीन के बारे में अच्छी जानकारी रही होगी तभी तो कांस्य धातु (9:1) बनाते थे अतः सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) को कांस्य युगीन सभ्यता कहा गया। इन धातुओं से ही लघु मूर्तियाँ बनाई जाती थी।

भारत में चाँदी का प्रथम साक्ष्य सिन्धु सभ्यता से ही प्राप्त हुए है किन्तु अभी तक लोगों को लोहे के बारे में कोई जनकारी नहीं थी।

उधोग

सीप एवं मोती उधोग लोथल एवं बालाकोट में, मनके बनाने के कारखानें लोथल, बनावली, भागासरा एवं चन्हुदड़ो में तथा शंख शिल्प का केंद्र बालाकोट तथा नागेश्वर (गुजरात) में स्थित था।

सुई के साक्ष्य मिलने से पता चलता है की लोग कपड़ा बुनने का काम भी करतें थे संभवतः वस्त्र उधोग सबसे प्रमुख उधोग रहा होगा।

वस्त्र व्यावसाय के अलावे जौहरी का काम, मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) मनके और ताबीज बनाने का काम भी प्रचलित था, जिसे विदेशो में भी निर्यात किया जाता था।

मिट्टी के बर्तन बनाने में काफी कुशल थे, इन बर्तनों पर लाल पट्टी से साथ काले रंग के भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बने होते थे। इसके अलावे इन वर्तनों पर पशुओं तथा वनस्पतिओं के चित्र बने होते थे किन्तु पशुओं की तुलना में वनस्पति का चित्र अधिक होते थें।

सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के लोग बुनाई, आभूषण, वर्तन, औजार, खिलौने, मुहरे निर्माण एवं परिवहन के लिए नाव बैलगाड़ी तथा भैसागाड़ी का निर्माण करते थे।

हड़प्पा नगर से नृत्य करती हुई स्त्री की कांस्य प्रतिमा, हड़प्पा व चन्हुदड़ो से कांसे की गाड़ियाँ, मोहनजोदड़ो से दाड़ी वाले शिर के पत्थर की मूर्ति (संभवतः पुजारी), स्वास्तिक चिन्ह, हाथी दांत पर मानव चित्र के साक्ष्य मिले है।

यहाँ से प्राप्त लकड़ी के वस्तु से पता चलता है की बढईगिरी का व्यावसाय भी प्रचलित था।

नोट – तलवार से परिचित नहीं थे

वाणिज्य एवं व्यापार

यह सभ्यता मुख्यतः व्यापारिक प्रधान थी, व्यापार ही सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के लोगों के लिए अधिक महत्वपूर्ण रहा होगा इसकी पुष्टि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो एवं लोथल से अन्नागार (आनाज की कोठरी), अधिक मात्रा में सीलों (मृन्मुद्राओं) के एक रूप लिपि और माप तौल के अस्तित्व होने से होती है।

बहुत सारे हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया से प्राप्त हुआ है, जिससे यह पता चलता है की हड़प्पा और मेसोपोटामिया के बीच गहरा व्यापारिक संवंध रहा होगा।

आंतरिक एवं वाह व्यापार दोनों उन्नत अवस्था में थी। व्यापार वस्तु-विनिमय प्रणाली पर आधारित थी अर्थात एक वस्तु देते थे और उसके बदले उनसे दुसरे वस्तु लेते थे।

सैन्धव, दिलमुन (बहरीन) एवं मेसोपोटामिया के बीच मध्यस्त बंदरगाह था। दिलमुन (बहरीन) के लोग विदेशी व्यापार के लिए बिचौलियों का काम करते थे। 

मेसोपोटामिया के अभिलेखों में वर्णित शब्द ‘मेंलुहा’ का संबंध सिन्धु सभ्यता से है। मेंलुहा को ‘नाविकों का देश एवं काले विदेशी लोगों की भूमि कहा गया है।

बहुत सारे ऐसे वस्तुएँ थी जिसे हड़प्पा वासी दुसरे देशों में बेचते थे किन्तु कुछ ऐसे वस्तुएँ भी थी जिसे हड़प्पा के लोग को दुसरे देशों से आयत करना पड़ता था। आयायित वस्तुओं में सर्वाधिक आयत धातुओं और बहुमूल्य वस्तुओं का आयत करतें थे।

प्रमुख व्यापरिक नगर – बालाकोट, डाबरकोट, सुत्कन्गेडोर, मुण्डीगाक, मालवान, भगतराव और प्रभासपाटन   

प्रमुख बंदरगाह – लोथल, सुतकोतदा, अल्लाहदिनो, कुतासी, बालाकोट आदि सिन्धु सभ्यता का बंदरगाह था।

परिवहन

सैन्धव वासी पशुओं के साथ साथ पहिये (चक्के) से भी अच्छी तरह से परिचित थे। यातायात के साधन के लिए दो पहिये या चार पहिये वाले बैलगाड़ी एवं भैसागाड़ी का इस्तेमाल करतें थे।

माप-तौल

माप तौल से परचित थे जोकि संभवतः 16 के अनुपात में था। जैसे की 16, 32, 64, 48, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि जोकि आधुनिक भारत तक चलता रहा।

मोहनजोदड़ो से सीप, लोथल से हांथी दांत से निर्मित पैमाना (स्केल) एवं कालीबंगा से मिट्टी का पैमाना (स्केल) प्राप्त हुए हैं।

मूहरें

मुहरें सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के सर्वोतम कलाकृतियाँ में से एक रही है अब तक लगभग 2000 से अधिक मुहरे प्राप्त हो चुके हैं जिनमे से अधिकांस (500) मुहरें मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए हैं।

मुहरें आमतौर पर चौकोरी और बेलनाकार होती थी चौकोरी मुहरें पर लेख व पशु दोनों आकृतियां होती थी, बेलनाकार मुहरें पर लेख होता था। इसके अलावे वृताकार और आयताकार मुहरें भी मिलें हैं।

मुहरों पर पशुओं एवं वनस्पति के चित्र के अलावे देवी-देवताओं के चित्र अंकित होते थे। पशुओं में सर्वाधिक चित्र एक सृंगी पशु/बिना कुबड़ा बाला वैल (वृषभ) का मिलता है तथा वनस्पतिओं में पीपल के वृक्ष का चित्र अंकन होता था।

अधिकांश मुहरें सेलखडी नामक पत्थर की बनी होती थी किन्तु कुछ गोमेद, मिट्टी, व चर्ट की बनी होती थी। लोथल एवं देसलपुर से ताम्बे से बनी मुहरें प्राप्त हुई है तथा लोथल से बटन के आकार की मुहर मिली है।

मृन्मूर्तियाँ (टेराकोटा)

सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के क्षेत्रों से अधिक संख्या में आग में पक्की हुई टेराकोटा की मूर्तियाँ (मिट्टी की मूर्तियाँ) मिली हैं, इन मूर्तियों का प्रयोग खिलौने एवं पूजा के लिए किया जाता था।

समस्त मृन्मूर्तियों में लगभग 73 प्रतिशत मूर्ति पशु-पक्षियों की तथा 25 प्रतिशत मूर्ति मानव की है। मानव मूर्तियों में सर्वाधिक स्त्री की मूर्ति मिली है।

धार्मिक जीवन

खुदाई में अधिक संख्या में स्त्री की मूर्तियाँ मिलने से यह अनुमान लगाया जाता है की सिन्धु सभ्यता मातृसत्तात्मक (जहाँ स्त्री प्रधान हो) रही होगी। इसके अलावे एक स्त्री के गर्भ से निकलते हुए एक पौधे को दिखाया गया है जिससे यह माना जाता है की यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और लोग इसे उर्वरक की देवी मानकर पूजा करते थे। जिस प्रकार मिस्र के लोग नील नदी को देवी मानकर पूजा करते थे संभवतः मूर्ति-पूजा का आरम्भ सिन्धु सभ्यता से ही शुरू हुआ।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर योग मुद्रा में एक व्यक्ति बैठे हैं जिसके सिर पर तीन सींग है, इस मुहर पर 5 प्रकार के कुल 6 पशु है। इसके बाएँ ओर गैंडा एवं भैसा तथा दाएँ ओर हाथी एवं बाघ है तथा सामने आसन के नीचे दो हिरन बैठें है इन्हें ही पशुपति शिव का रूप माना गया है।

कुछ विद्वान मानते है भगवन शिव द्रिविड़ो के देवता थे अतः हिन्दू धर्म द्रविड़ो का मूल धर्म था, जिसे बाद में जब आर्य भारत आये तो उन्होंने इसे अपना लिया।

पूजा व उपशाना

धार्मिक अनुष्ठान के लिए धार्मिक गृह बनाई गई थी, इतिहासकारों की माने तो वृहतस्नानागार में धार्मिक कार्य किया जाता होगा, जिस प्रकार आज के समय में गंगा में स्नान व उपासना करते है।

पशुपतिनाथ शिव की उपशाना, नाग पूजा, वृक्ष पूजा, अग्नि पूजा, जल पूजा का प्रचालन था स्वास्तिक चिन्ह एवं चक्र, सूर्य पूजा का प्रतीक था।

सैन्धव वासी मानव, पशु व वृक्षों सभी रूपों में ईश्वर की उपशाना करते थे मातृ देवी और देवताओं की उपासना व उन्हें बलि दी जाने की धार्मिक परम्परा रही होगी।

पशु, पक्षी व वृक्ष की पूजा खासकर एक सींग वाले जानवर और बतख (फाख्ता) की पूजा प्रचलित था। पशुओं में कूबड़ वाला सांड, पक्षियों में बतख तथा वृक्षों में पीपल का वृक्ष सबसे अधिक पूजनीय था।

स्वास्तिक चिन्ह सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) की देन है, इससे सूर्य उपासना का अनुमान लगाया जाता है। लोथल व कालीबंगा में की गई खुदाई से अग्निकुण्ड और अग्निवेदिकाएं मिला है।

अधिक संख्या में ताबीजों की प्राप्ति के कारण उनके अंध विश्वास का पता चलता है लोग भूत प्रेत, पुनजन्म, भक्ति व परलोक जैसी अवधारणा पर विश्वास करते थे।

मिस्र और मेसोपोटामिया में कई मदिरों के अवशेष मिले है किन्तु सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) के किसी भी स्थल से मंदिर के अवशेष नहीं मिले है, हालाँकि बनावली के एक भवन में मंदिर होने का अनुमान लगया जाता है।

शावाधन

शवों का अंतिम संस्कार तीन प्रकार से किया जाता था

  • पूर्ण समधिकरण – इसमें शव को पूर्ण रूप से भूमि में दफना दिया जाता था।
  • आंशिक समाधिकरण – इसने शवों कुछ भाग पशु-पक्षिओं को खाने के बाद दफ़न किया जाता था।
  • दाह संस्कार – पूर्ण रूप से दाह संस्कार

हड़प्पा से आंशिक शावाधन, मोहनजोदाड़ो से कलाश्ह शावाधन तथा कालीबंगा से प्रतीकात्मक शावाधन से साक्ष्य मिले है। लोथल से युग्मित शावाधान के प्रमाण मिले है जिससे इतिहासकारों द्वारा सती प्रथा के प्रचालन का अनुमान लागाया जाता है।

हड़प्पा में शवों को दफनाने (सर उत्तर एवं पैर दक्षिण) तथा मोहनजोदाड़ो में जलाने की प्रथा थी। शव पात्रों के चित्रण में मयूर (मोर) का चिन्ह चित्रित किया जाता था।

नोट – हड़प्पा के दक्षिणी भाग से एक कब्रिस्तान मिला है जिसे R-37 या कब्रिस्तान एच नाम दिया गया है।

पतन का कारण (Sindhu Ghati sabhyata ke patan ke kaaran)

भारत ही नहीं वल्कि विश्व की सबसे विस्तृत व समृद्ध सभ्यताओं में से एक सिन्धु सभ्यता या सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) लगभग 1000 वर्षों तक रहा। अचानक पतन होने के पीछे क्या कारण रहें इस बारे में तो कोई स्पस्ट जानकारी प्राप्त नहीं है। लेकिन इसके पतन को लेकर विद्वानों का एक मत नहीं है पर फिर भी इस पर इतिहासकारों और विद्वानों के द्वारा अलग-अलग तर्क दिए जातें है।

यह बहुत बड़ा और विशाल सभ्यता थी इस कारण संभवतः अलग-अलग स्थलों के पतन के लिए अलग अलग कारण रहे होंगे जो निम्न हो सकते है।

  • वाह्य या आर्यों का आक्रमण
  • प्रशाशनिक शिथिलता (जॉन मार्शल)
  • आर्थिक कारण
  • बाढ़
  • सुखा
  • नदियों का जलमार्ग परिवर्तित

वाह्य या आर्यों का आक्रमण

एक साथ बहुत सारे नरकंकाल व यत्र-तत्र कंकालों (हड्डीयों) के मिलने से यह अनुमान लगाया जाता है की यहाँ बड़े पैमाने पर नरसंघार हुआ होगा। क्योंकी अगर प्रकृति रूप से लोगों की मृत्यु होता तो उन सभी का अंतिम संस्कार हुआ होता और जो आभूषण मिले है, वह सभी भी विखरे हुए नहीं होते।

विदेशी आक्रमण की अवधारणा सबसे पहले गार्डन चाइल्ड ने 1934 ई० में दिया और फिर बाद में 1946 ई० में व्हीलर ने आयों के आक्रमण को इसकी पतन का कारण माना।

किन्तु कुछ विद्वानों ने इस तर्क का समर्थन नहीं किया क्योंकी उनका मानना है की सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) एक बड़ी और विशाल सभ्यता थी अतः एक आक्रमण से इतनी बड़ी सभ्यता का अंत नहीं हो सकता और ना ही को शास्त्रों (हथियारों) का प्रमाण मिला है।

प्रशाशनिक शिथिलता

जॉन मार्शल का मानना था कि नगर, तेजी से ग्रामीन क्षेत्रों में बदला रहा था जो इस बात की ओर संकेत करता है की धीरे-धीरे प्रशाशनिक व्यवस्था विगडा होगा जिस कारण इसका पतन हो गया।

किन्तु आधुनिक इतिहासकार और विद्वान इसलिए इस तर्क को भी नहीं मानते है की अगर प्रशाशनिक व्यवस्था का कोई एक स्तर अव्यवस्थित हो भी जाए, तो भी इस अव्यवस्था के कारण पतन नहीं हो सकता।

आर्थिक कारण

आधुनिक इतिहासकार और विद्वान का तर्क है की सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) एक कृषि प्रधान सभ्यता थी। इस समय कृषि के उत्पाद में कमी, वाणिज्य व उधोग में मंदी तथा समय के साथ तकिनिक का विकास ना हो पाना इस सभ्यता के अंत का कारण रहा होगा।

लेकिन इस पर भी सभी विद्वानों का एक मत नहीं है, इसका सबसे बड़ा कारण है की इस प्रकार की मंदी व उत्पादन में कमी किसी एक क्षेत्र में आ सकता है परंतु सभी जगह एक साथ नहीं आ सकता।

बाढ़

मोहनजोदड़ो में बाढ़ का प्रमाण मिला है, अक्सर कहा जाता है की बाढ़ के कारण मोहनजोदाड़ो सात बार उजड़ा भी और फिर बसा भी।

किन्तु इसका भी विरोधाभास है की बाढ़ आने से दो या चार नगर का पतन हो सकता है लेकिन सिन्धु सभ्यता के तो कई सारे नगर थे जैसे की चन्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा, सुताकंगेदोर आदि इस सभी  नगरों का पतन एक साथ तो नहीं हो सकता।

सुखा या सुखाड़

कुछ विद्वानों के द्वारा ये तर्क दिया जाता है की क्षेत्र सुखाग्रस्त हो गया होगा और घघ्घर नदी भी सुख गया होगा और इसी सुखा के कारण इस सभ्यता का पतन हो गया।

किन्तु सिन्धु सभ्यता का फैलाब जिन क्षेत्रों में था वहाँ केवल घघ्घर नदी ही नहीं वल्कि सिन्धु नदी, सरस्वती नदी, रावी नदी आदि कई सारे नदियों का वाहाव था। अतः सुखा इसका कारण नहीं हो सकता।

नदी के मार्ग में परिवर्तन

इस सभ्यता के सबसे प्रमुख नदी यानी सिन्धु नदी की धाराओं में अचानक से परिवर्तन आ गया और वह अपनी मूल दिशा से दूर वाहने लगी। जिस कारण सिन्धु नदी से जो संसाधन प्राप्त होते थे वह नहीं होने लगा और पतन हो गया। इसका भी विरोध भाष है की एक साथ सभी नदियों के मार्ग में तो परिवर्तन तो नहीं आ सकता है।

FAQ Section :

सिन्धु घाटी सभ्यता का इतिहास क्या है?

सिन्धु घाटी सभ्यता का उदय भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी तथा पक्षिमी भाग में हुआ, यह सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में नगरीय क्रांति के अवस्था को दर्शाती है।

20 शताब्दी के शुरुआत तक इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं का ये मानना था की वैदिक सभ्यता ही भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है लेकिन 1921 ई० में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा की खुदाई की गई तो एक नई सभ्यता होने का साक्ष्य मिला जिससे की भारत का इतिहास ही बदल गया।

सिन्धु घाटी की सभ्यता का दूसरा नाम क्या है?

सिन्धु सभ्यता के नाम को लेकर इतिहासकारों के बीच कहीं न कहीं मतभेद रहा है अतः इतिहासकारों तथा विद्वानों द्वारा इस सभ्यता को अन्य कई नामों से भी संवोधित किया जाता है जैसे कि – हड़प्पा सभ्यता, सिन्धु सभ्यता तथा सिन्धु-सरस्वती आदि।

इतने नाम ऐसे ही नहीं रख दिया गया है वल्कि इसके पीछे भी अलग-अलग तर्क भी दिए गये हैं। पुरातत्व की परम्परा के अनुसार किसी सभ्यता नामकरण उसके प्रथम उत्खनित स्थल के नाम पर रखा जाता है, जिसका उत्खनन सबसे पहले हुआ हो।

जैसे की हड़प्पा इस सभ्यता के पहले उत्खनित स्थल है, इस कारण इसे हड़प्पा सभ्यता कहा जाता है।
इस सभ्यता से जुड़े सभी स्थल सिन्धु नदी और उसके सहायक नदीयों के आस-पास मिलने के कारण इसे सिन्धु घाटी सभ्यता कहा जाता है।

सिन्धु नदी ही नहीं वल्कि सरस्वती नदी के तट के आस-पास भी इस सभ्याता के स्थल पाए गए इसलिए इसे सिन्धु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया गया।

यहाँ के निवासियों द्वारा पत्थर व कांस्य के बने उपकरणों का उपयोग किया जाता था। प्रथम बार कांस्य का इस्तेमाल किए जाने के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता जाता है।

इस सभ्यता को तृतीय कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है, कांस्य युग की दो अन्य सभ्यताएँ मिश्र की सभ्यता और मेसोपोतामियाँ की सभ्यता है।

सिन्धु सभ्यता का सबसे बड़ा नगर कौन था?

इस सभ्यता का सबसे बड़ा नगर मोहनजोदड़ो जो वर्तमान में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में है वहीँ भारत में खोजे गए इस सभ्यता के सबसे बड़े नगर राखिगढ़ी है जो हरियाणा राज्य में है।

भारत की प्रथम सभ्यता कौन थी?

20 शताब्दी के शुरुआत तक इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं का ये मानना था की वैदिक सभ्यता ही भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता है लेकिन 1921 ई० में दयाराम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा की खुदाई की गई तो एक नई सभ्यता होने का साक्ष्य मिला जिससे की भारत का इतिहास ही बदल गया।

R-37 कब्रिस्तान कहाँ से मिला है?

हड़प्पा के दक्षिणी भाग से एक कब्रिस्तान मिला है जिसे R-37 या कब्रिस्तान एच नाम दिया गया है।

सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता कौन थे?

प्राप्त कंकालों के परिक्षण से प्राप्त जनकारीयों के अनुसार यहाँ चार प्रजातियाँ भुमध्सागरीय, ऑस्ट्रेलॉइड, अल्पाइन और मंगोलाइड निवास करती थी।
जिसमे भुमध्सागरीय प्रजाति की संख्या अधिक हुआ करती थी जिसका सबंध द्रविड़ जाति से था और संभवतः द्रविड़ ही सिन्धु घाटी सभ्यता का निर्माता रहे होंगे। लेकिन कुछ विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता का निर्माता अलग-अलग लोगों को माना है

सिन्धु घाटी सभ्यता का विस्तार?

सिन्धु घाटी सभ्यता का विस्तार उत्तर में मांड (जम्मू-कश्मीर) दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र), पूर्व में आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश), पक्षिम में सुत्कान्गेडोर (बलूचिस्तान) तक है। पूर्व से पक्षिम तक की लम्बाई 1600 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक की चौड़ाई 1400 किलोमीटर था।
इसका आकार त्रिभुजाकार था और यह लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर में फैला था। सिन्धु घाटी सभ्यता के स्थल तीन देशों भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिलते हैं। भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान पहले भारत का ही भु-भाग रहा था।

सिन्धु घाटी सभ्यता का पतन कैसे हुआ?

भारत ही नहीं वल्कि विश्व की सबसे विस्तृत व समृद्ध सभ्यताओं में से एक सिन्धु घाटी सभ्यता या सिन्धु सभ्यता (sindhu sabhyata) लगभग 1000 वर्षों तक रहा। अचानक पतन होने के पीछे क्या कारण रहें इस बारे में तो कोई स्पस्ट जानकारी प्राप्त नहीं है। लेकिन इसके पतन को लेकर विद्वानों का एक मत नहीं है पर फिर भी इस पर इतिहासकारों और विद्वानों के द्वारा अलग-अलग तर्क दिए जातें है।

यह बहुत बड़ा और विशाल सभ्यता थी इस कारण संभवतः अलग-अलग स्थलों के पतन के लिए अलग अलग कारण रहे होंगे जो निम्न हो सकते है। जैसे की वाह्य या आर्यों का आक्रमण, प्रशाशनिक शिथिलता, आर्थिक कारण, बाढ़, सुखा, नदियों का जलमार्ग परिवर्तित आदि

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