ऋग्वैदिक काल : Rigvaidik Kal – सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक

इतिहास का वह काल खण्ड जिसकी जानकारी मूल रूप से ऋग्वेद से प्राप्त होती है उसे ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) कहते हैं। इस काल का निर्धारण भी वेदों से प्राप्त जानकारी के आधार पर किया गया है। प्राप्त जनकारी के अनुसार 1500 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसा पूर्व तक के समय को ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) कहा जाता है।

ऋग्वैदिक काल (Rigvaidik Kal)

यह मूलतः एक ग्रामीण सभ्यता थी जिनका आर्थिक जीवन का आधार कृषि व पशुपालन थी तथा राजनीतिक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। ऋग्वैदिक कालीन आर्य घुमन्तु थे अर्थात स्थाई रूप से किसी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे। पशुपालन उनका मुख्य व्यावसाय था और घुमक्कड़ जीवन शैली होने के कारण कृषि का पूर्ण विकास नहीं हो पाया।

विस्तार

ऋग्वैदिक कालीन आर्य, सिन्धु और उनके सहायक नदियों के आस-पास रहते थे. जिसे सप्तसैन्धव प्रदेश कहा गया जिसका उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। सप्त सैन्धव प्रदेश के अंतर्गत सात नदियों – सिन्धु (सिंध/सुवास), सतलुज (शतुद्री), व्यास (विपाशा), रावी (पुरुष्नी), चेनाब (अस्किनी), झेलम (वितस्ता) एवं घग्घर (सुषोमा) आते हैं।

इनमे से अफानिस्तान की चार नदियाँ कुभा (काबुल), क्रुमु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) का उल्लेख मिलता है जिससे स्पस्ट होता है कि आर्य सर्वप्रथम अफानिस्तान और पंजाब के आस-पास बसे थे।

ऋग्वेद में सरस्वती नदी को सबसे पवित्र नदी बताया गया है, सरस्वती नदी को नदीतमा (नदियों में प्रमुख), देवितमे एवं नदीतमा कहा गया है। गंगा एवं सरयू नदी का एक बार, युमना नदी का तीन बार उल्लेख किया गया है।

ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) के पुरातात्विक साक्ष्य मुख रूप से तीन प्रकार के साक्ष्य हैं, काले एवं लाल मृदभांड, गेरुवार्नी मृदभांड एवं ताम्र पुंज।

  • चार समुद्रों का उल्लेख किया गया है संभवतः यह किस जलराशि का वाचक होगा।
  • मरुस्थल के लिए धन्व शब्द का प्रयोग किया गया है।
  • हिमालय पर्वत एवं इसकी एक चोटी मुजवंत का भी उल्लेख है।

राजनितिक व्यवस्था

1. प्रशासनिक इकाई

ऋग्वैदिक कालीन प्रशासन मुखतः कबीलाई व्यवस्था थी जिसमे सैनिक भावना प्रमुख थी। इस कबीले के समूह को चलाने के लिए एक प्रशासनिक व्यवस्था की आवश्यकता होती थी। प्राचीन भारतीय इतिहास में ना तो राजतन्त्र था और नहीं कोई लोकतंत्र किन्तु ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) में पहलीबार आंशिक रूप से राजतन्त्र की शुरुआत होता है।

ग्राम के प्रधान को ग्रामणी, ग्रामों के समूह को विश एवं प्रधान को विशापति, विशों के समूह जन कहलाता था और जन के अधिपति को जनपति या राजा या गोपति कहा जाता था। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार किया गया है किन्तु जनपद का उल्लेख नहीं किया गया है। कुल सबसे छोटी राजनीतिक इकाई थी जो कई परिवारों का समूह होता था।

2. राजा

जन को देख-रेख करने के लिए जो सबसे बड़े अधिकारी होता था उसे “राजन” कहा जाता था जोकि उस क्षेत्र का राजा कहलाता था किन्तु राजा को काफी सिमित अधिकार दिए गए थे जैसे कि राजा के पास कोई भी न्यायिक अधिकार नहीं था।

राजा के चुनाव में समितियों का महत्वपूर्ण योगदान होता था। राजा का निर्वाचन संबंधी सूक्त ऋग्वेद एवं ऐतरेय ब्राह्मण में है। राजा की सहायता के लिए सभा, समिति, विदत तथा गण आदि संस्थाए बनाए गए थे। इनमे से समिति को राजा को नियुक्त करने एवं हटाने का अधिकार प्राप्त था।

राजा के लिए ‘गोप’ शब्द का प्रयोग किया गया है, राजा कबीले का मुखिया होता था इनका कार्य कबीले को संरक्षण प्रदान करना होता था। राजा जहाँ शासन कर रहा होता था वह उस भूमि का स्वामी नहीं होता था।

बलि (कर) प्रजा द्वारा स्वेच्छा से दिए जानेवाल उपहार था। इसके बदले में राजा उसकी सुरक्षा की जेम्मेदारी लेता था हालाँकि प्रजा यह उपहार (बलि) राजा को देने के लिए वाध्य नहीं था।

कबीले की रक्षा के लिए राजा के पास कोई स्थाई सेना नहीं होती थी वल्कि व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नाम से कबीलाई टोलियाँ ही लड़ाई करती थी और युद्ध समाप्त होते ही लोग आम प्रजा की तरह कृषि, पशुपालन व अन्य कार्य में लग जाते थें।

दशाराज्ञ युद्ध

पुरुष्नी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया दसराग युद्ध, भरत वंश के राजा सुदास तथा दस अन्य जनों का संघ (पांच आर्य एवं पांच अनार्य) के बीच लड़ा गया जिसमे सुदास विजयी हुआ। जिसका उल्लेख ऋग्वेद के दशवें मण्डल में किया गया है। पराजित जनों में पुरु जन सबसे महान जन था, कालांतर में पुरु और भरत जनों में मैत्री हो गई और कुरु नामक एक नया शासक कुल का उदय हुआ।

प्रशासनिक संस्थाएँ

ऋग्वेद में सभा (8 बार), समिति (9 बार), विदथ (122 बार) तथा गण (46) नामक संस्थाओं का उल्लेख किया गया है। ये संस्थाएँ राजा की शक्तियों पर नियंत्रण रखने के साथ-साथ परामर्श भी देते थे।

  • समितियह सामान्य जनता की प्रतिनिधि सभा थी, जिसमे कबीले के सभी लोग सामिल होते थे और आम विषयों पर राजा को सलाह देतें थे। इसके सभापति को ईशान कहा जाता था।
  • सभाइसमें केवल कुलीन वर्ग के लोग ही सामिल होते थे अर्थात उच्य वर्ग के लोग इसे मंत्रिपरिषद कहा जा सकता है।
  • विदतयह आर्यों की सबसे प्राचीन संस्था थी जोकि उपज एवं लुट के माल को (कही से लुट या फिर युद्ध कर जीत कर लाये गए धन) को बाटने के लिए बनाया गया था।
  • गण गण भी कुलीन लोगों की संस्था थी अर्थात उच्य वर्ग के लोग सामिल होते थे।

नोट – सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है, ये सामान्य लोगों की संस्था होती थी। ये दोनों ही संस्थाएँ अधिक प्रभावी संस्था हुआ करता था जिसमें पुरुष व महिलाएँ दोनों भाग ले सकती थी।

राजा की सहायता के लिए कुछ अधिकारी भी चुने जाते थे जैसे पुरोहित, सेनानी, पुरप, स्पस (रत्तनी) आदि।

  • पुरोहितपुरोहित सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होतें थे जोकि राजा को धार्मिक सलाह देते थे।
  • सेनानीसेना प्रमुख होते थे हालाँकि इस समय की सेना स्थाई नहीं होती थी अर्थात युद्ध के समय सेना होती थी और युद्ध समाप्त होते ही आम लोगों की तरह रहने लागतें थे।
  • पुरपयह काबिले के दुर्ग की सुरक्षा से संवंधि कार्य करने के लिए चुने जाते थे
  • स्पसयह गुप्तचर संस्था के प्रमुख होते थे

सामाजिक (Rigvaidik kalin Samaj)

समाज के गठन का आधार गोत्र था जोकि प्रत्येक व्यक्ति के पहचान का आधार था। समाज में संयुक्त परिवार (कुल) की प्रथा प्रचालन में थी। परिवार के मुखिया घर के पिता होते थे यानी ऋग्वैदिक कालीन समाज पितृसत्तात्मक समाज था।

प्रारंभ में तीन वर्णों का उल्लेख मिलता है ब्रह्म, क्षत्रिय तथा विश का जिक्र मिलता है बाद में ऋग्वेद के 10वें मण्डल के पुरुष सूक्त में सर्वप्रथम शुद्र शब्द का उल्लेख किया गया है। इस सूक्त में बताया गया है की ब्रह्मण परम पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उनकी जांघों से व शुद्र उसके पैरों से उत्तपन हुए है। दास प्रथा का उल्लेख भी इसी सूक्त में क्या गया है।

हालाँकि व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसके कर्म पर आधारित था नाकि उसके जन्म पर मतलब की जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसका वर्ण भी वैसा ही होगा अगर कोई व्यक्ति ज्ञानी है तो वह ब्राह्मण कहलाएगा और अगर वलबान हुआ तो क्षत्रिय आदि।

ऋग्वैदिक कालीन समाज समतावादी समाज था यानी की समाज में सभी लोग सामान होते थे ना तो कोई अधिक धनि होता था और नाही कोई अधिक निर्धन।

महिलायों को उपनयन संस्कार, पुनर्विवाह, नियोग प्रथा, बहुपति विवाह का प्रचालन था इसके अलावे यज्ञ कार्य में भी भाग लेने का एवं शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था।

गार्गी, मैत्रयी, कात्यायनी यह सभी महिलाएँ इस काल की विदुषी (शिक्षित) महिलाएँ थी जिसका संवंध ऋषि परिवारी से था। लोपामुद्रा, घोष, सिकता, विश्ववारा, अपाला आदि भी उस काल की विदुषी (शिक्षित) महिलाएँ थी।

  • नियोग प्रथा का अधिकार था यानी की अगर पति की मृत्यु हो जाए तो वह पति के छोटे भाई से विवाह कर सकती थी।
  • इस काल में शाकाहारी तथा मंशाहरी दोनों तरह के भोजन करने वाले लोग थे।
  • ऋग्वेद के 10वें मण्डल को पुरुसशुक्त कहा जाता है।
  • ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) में दास प्रथा का प्रचालन था लेकिन सख्त नहीं था।
  • इस काल में मनोरंजन के प्रमुख साधन के रूप में नृत्य, पास तथा घुडदौर आदि प्रमुख था।
  • बाल विवाह एवं सती प्रथा का प्रचालन नहीं था।

आर्थिक स्थिति

ऋग्वैदिक संस्कृति ग्रामीण, पशुपालन आधारित एवं राजतंत्रीय थे। ऋग्वैदिक कालीन आर्य घुमन्तु थे अर्थात स्थाई रूप से किसी एक स्थान पर निवास नहीं करते थे।

ऋग्वैदिक आर्यों का प्रारंभिक जीवन कबीलाई व अस्थाई थी अतः कबीलाई संरचना के अनुकूल पशुपालन उनका मुख्य व्यावसाय था और घुमक्कड़ जीवन शैली होने के कारण कृषि का पूर्ण विकास नहीं हो पाया।

पशुओं में गाय सबसे प्रमुख व पूजनीय पशु था, ऋग्वेद में गायों का 176 बार तथा कृषि का 24 बार उल्लेख किया गया है। गाय के लिए अधन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। यानी की गाय की हत्या करना सबसे बड़ा पाप है कभी-कभी गायों के लिए दो कबीलों बीच युद्ध भी हो जाता था।

घोड़े दूसरा सबसे प्रिय व प्रमुख पशु था, घोड़े का प्रयोग रथ के लिए घुडदौर के लिए तथा युद्ध में सेना के रूप में किया जाता था ।

इसके अलावे बैल, भैस, भेड़, बकरी, ऊंट एवं सारामा नामक एक कुतिया का उल्लेख है किन्तु बाघ एवं हाथी का उल्लेख एक बार भी नहीं किया गया है।

पशुपालन के अलावे कृषि का कार्य भी किया जाता था ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में कृषि प्रक्रिया का तथा अनाज के रूप यव यानी जौ का वर्णन मिलाता है।

धनी व्यक्ति को गोमत तथा पणी नामक व्यापारी पशुओं की चोरी करने के लिए प्रसिद्ध था।

ऋग्वैदिक काल (rigvaidik kal) में उधोगो काफी सिमित अवस्था में थी, पर बढई, रथकार, बुनकर, कुम्हार, चर्मकार आदि शिल्पियों का उल्लेख किया गया है। बढई के लिए तक्षण, धातुकर्मी के लिए कर्मार एवं सोना के लिए हिरन्य शब्द का प्रयोग किया गया है।

उधोग अच्छे नहीं होने के कारन व्यापार भी काफी सिमित अवस्था में थी। आंतरिक व्यापार किया जाता था मतलब की एक कबीले से दुसरे कबीले के बीच व्यापार होता था।

इस काल में मुद्राओं की खोज नहीं हुआ था इसलिए व्यापार के लिए विनिमय प्रणाली को अपनाया जाता था। (विनिमय प्रणाली में एक वस्तु से बदल कर दुसरे वस्तु लिया जाता है)

  • धातु के रूप में ताबें का प्रयोग किया जाता था।
  • ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है।
  • ऋण देकर व्याज लेनेवाले को बेकनाट (सूदखोर) कहा गया है।

धार्मिक स्थिति

आर्य बहुदेववादी हुए भी एकेश्वरवाद थे वह प्राकृतिक शक्तियों को मानवीकरण मानकर उनकी पूजा करते थे स्पस्ट कहा जाय तो आर्य प्राकृतिक पूजक थे और उनके धार्मिक जीवन में यज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान था। अब तक 33 देवी-देवताओं का साक्ष्य प्राप्त हुआ है जिसे तीन श्रेणियों में बाटा गया है।

आकाश के देवतासूर्य, अश्विनी, धौस, वरुण, मित्र, पूषण, विष्णु, सवितृ, उषा इत्यादि

अंतरीक्ष के देवताइंद्र, रूद्र, वायु, मारुत, पर्जन्य, मातरिश्वनी इत्यादि

पृथ्वी के देवताअग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति इत्यादि

इंद्र – इंद्र को पुरंदर कहा गया है यह महत्वपूर्ण देवता हैं, ऋग्वेद के दुसरे मण्डल में इंद्र की स्तुति में सर्वाधिक 250 बारे सूक्त हैं। इन्हें आर्यों के युद्ध, वर्षा, आँधी तथा तूफान का देवता माना गया है।

अग्नि – इंद्र के बार सर्वाधिक 200 सूक्त अग्नि देवता की स्तुति में है। अग्नि दुसरे लोकप्रिय देवता थे, इन्हें मनुष्य व देवताओं के बीच मध्यस्थ के देवता माना गया है क्योंकी अग्नि के माध्यम से आहुति दी जाती थी अतः ऋग्वेद में अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है।

वरुण – वरुण तीसरे लोकप्रिय देवता थे, ऋग्वेद में इनका 30 बार उल्लेख किया गया है। वरुण को नदियों, जल, समुद्र, प्रस्थितिकी एवं नैतिकता का संरक्षक देवता माना गया है। वरुण को ऋतू गोपा एवं असुर भी कहा गया है।

धौ – ऋग्वैदिक कालीन देवताओं में धौस सबसे प्राचीन देवता हैं। 

सूर्य देवता को समर्पित, प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र का उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में किया गया है इनके रचयता विश्वामित्र है।

Rigvaidik Kal अन्य तथ्य

  • इंद्रइंद्र सबसे प्रमुख देवता इंद्र को पुरंदर कहा गया है ऋग्वेद में इंद्र के लिए 250 श्लोक है
  • अग्निअग्नि दुसरे प्रमुख देवता थे इन्हें मध्यस्थ देवता के रूप में जाना जाता है यानी की भगबान और इंसानों के बीच के देवता ऋग्वेद में इनके लिए 200 श्लोक है।
  • वरुणइन्हें वर्षा तथा समुद्र के देवता कहा जाता था।
  • सावित्री सावित्री तीसरे प्रमुख देवता थे यह चमकते हुए सूर्य के देवी थे इनके संवंध में गायत्री मन्त्र लिखा गया है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल सावित्री देवता को समर्पित है।
  • मित्रमित्र को उगते हुए सूर्य के देवता के रूप में माना गया था।
  • अश्विन अश्विन चिकत्सा के देवता थे।
  • पूषण पुषप को पशुओं तथा औषधि का देवता माना जाता था।
  • सोम सोम को वनस्पति के देवता माना जाता था।

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