महापाषाण काल (Mahapashan Kal), दक्षिण भारत (प्रयाद्वीपीय भारत) को प्रागैतिहासिक कला से इतिहासक काल की ओर ले गई जो आगे चलकर वहाँ की सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक जीवन को अधिक प्रभावित किया। अतः इसे दक्षिण भारत के इतिहास का आध्रात्मक चरण भी कहा जाता है। इस काल के दौरान प्रचलित संस्कृतियों को महापाषाणिक संस्कृति कहा गया।
महापाषाण काल, ताम्र- कांस्य काल तथा लौह काल के बीच के काल को कहा जाता है क्योंकी दक्षिण भारत में पाषाण काल के बाद लौह काल आया और नव पाषाण काल ताम्र पाषाण काल में परिवर्तित हो गया, जिससे नव पाषाण काल ताम्र पाषाण काल कहा जाने लगा।
Mahapashan Kal
बड़े पत्थर बड़े-बड़े पत्थरों के अधिकता से उपयोग किये जाने के कारण इस काल को महापाषाण काल (Mahapashan Kal) व इसकी संस्कृति को महापाषाणिक संस्कृति कहा गया। इस काल की शुरुआत लगभग 1000 ईसा पूर्व में विशेषकर प्रायद्वीपीय भारत आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों में हुआ।
महापाषाणिक काल, लौह काल के समकालीन है क्योंकी इतिहासकारों ने महापाषाणिक काल का निर्धारण 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व तक किया है, और यह समय लौह युग का समय भी रहा है। लोग पहाड़ों के ढलानों पर रहते थे। ये संस्कृतियाँ मूल रूप से दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर पूर्वी भारत तथा कश्मीर में प्रचलित थी।
आंशिक शवाधान की पद्धतियों भी प्रचलित थी यानी की शवों को खुले में छोड़ दिया जाता था हालाँकि कहीं कहीं पूर्ण शावाधान का साक्ष्य भी मिलता है। ब्रह्मगिरी, आदीनचल्लूर, गुन्टूर, मस्की पुदुकों, नागार्जुनीकोंड तथा चिंगलपुट प्रमुख शवाधान केंद्र थे।
कब्रों से कई तरह के मृदभांड मिले है, जिनमे से अधिकांश मृदभांड काल व लाल रंग के होते थे और उस पर सफेद रंग की आकृति बनी होती थी।
गार्डन चाइल्ड के अनुसार महापाषाणिक संस्कृति की लोग कुछ ऐसे परम्पराओं को पालन करते थे जिससे कहा जा सकता है की लोग अंधविश्वासी संबंधि अनुष्ठान करते थे।
जैसे की किसी व्यस्क व्यक्ति के मृत्यु के बाद उसका दोनों पैर काट दिया जाता था, ताकि वह भूत ना बन सके यह उनके अन्धविश्वास को दर्शाता है हालाँकि इस प्रकार का साक्ष्य केवल दक्षिण भारत से ही मिले है।
महापाषाणिक काल के लोग लौह तथा कृषि से पूरी तरह से परिचित थे किन्तु अभी भी शिकार किया करते थे। लौह के प्रयोग से नुकीले व धारदार हथियार व औजार बनाए जाने लगें जैसे कि बाण, त्रिशूल और बरछे आदि, जिसका इस्तेमाल शिकार तथा कृषि कार्य के लिये करते थे।
उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य के आधार पर यह कहा जाता है, की लोग मातृदेवी की पूजा करतें थे और वृषभ (साढ़) संभवतः लोगो का धार्मिक प्रतीक रहा होगा। उत्खनन से कार्नेलियन मोतियों, लापीस, लाजुली, ताम्बे तथा कांस्य की वस्तुओं का साक्ष्य मिला है, जिससे यह कहा जाता कि व्यापार भी काफी उन्नत अवस्था में रही होगी।
कायधा से ताम्बे के 29 कंगन प्राप्त हुआ है। महापाषाणिक के लोग धान की खेती करते थे।
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