छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मध्य गंगा के मैदानों में कई सम्प्रदायों का उदय हुआ जैन धर्म (Jain Dharm) उन सम्प्रदायों में से एक है हालाँकि जैन धर्म (Jain Dharm) की स्थापना बहुत ही पहले हो चूका था पर इसका विस्तार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ।
इस लेख में दी गई जानकारी
- जैन धर्म का परिचय
- महावीर स्वामी
- जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ
- त्रिरत्न
- महाव्रत एवं अनुव्रत
- ब्रह्मचर्य
- सम्यक ज्ञान
- जीव-अजीव
- अनंत चतुष्टक
- कैवाल्य
- संलेखन
- जैन संघ एवं सम्प्रदाय
- श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में अंतर
- जैन धर्म का प्रचार
- जैन संगीति
- जैन साहित्य
- जैन तीर्थंकर एवं उनके प्रतीक
- जैन धर्म के पतन के कारण
- जैन धर्म से संवंधित अन्य तथ्य
जैन धर्म
जैन शब्द संस्कृत के ‘जिन’ शब्द से बना है जिसका अर्थ – विजेता होता है अर्थात जिन्होंने अपने मन, वाणी एवं काया पर विजय प्रपात कर लिया हो। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए जैन साधुओं को निर्ग्रन्थ (बन्दरहित) कहा गया है जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के अयोध्या में हुआ था और इन्होने कैलाश पर्वत पर अपने शारीर का त्याग क्या था ऋषभदेव तथा अरिष्टनेमि (22वें तीर्थंकर) उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
23वें तीर्थंकर पश्र्वर्नाथ कशी या वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे इनोने अपने अनुयायों को चातुर्याम शिक्षा या चार आचरण पालने करने को कहा।
पश्र्वर्नाथ ने 30 वर्ष की आयु में ज्ञान प्राप्ति के लिए घर से निकल दिए और इन्हें सम्मेद पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुआ| पश्र्वर्नाथ ने अनुयायों को चातुर्याम शिक्षा या चार आचरण पालने करने को कहा जिसे महाव्रत कहा गया|
- सत्य (सत्य बोलना)
- अहिंसा (हिंसा ना करना)
- अस्तेय (चोरी नहीं करना)
- अपरिग्रह (धन संग्रह नहीं करना)
महावीर स्वामी
24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को जैन धर्म (Jain Dharm) का वास्तविक संस्थापक माना जाता है क्योंकी अन्य 23 तीर्थंकरों के समय में जैन धर्म का विस्तार उस प्रकार से नहीं हो पाया जिस प्रकार से महावीर स्वामी के समय में हुआ। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ ‘ज्ञातृक’ कुल के सरदार थे व माता त्रिशला लिच्छवी राजा चेटक की बहन थी| महावीर के पत्नी का नाम यशोधरा व पुत्री का नाम अनोज्जा प्रिदार्शानी थी।
महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व कुण्डलग्राम में हुआ जोकि इस समय बिहार के वैशाली जिले में स्थित है इनका वास्तविक नाम वर्धमान था। इन्होने 30 वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर गृहत्याग किया और 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद जाम्भिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य (ज्ञान) की प्राप्ति हुई।
ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर केवलिन तथा सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण जिन (विजेता) कहलाएँ इसके अलावे इन्हें और भी कई नाम से जाना जाता है जैसे कि –
- जिन – विजेता
- अर्हत – योगी
- निग्रंथ – वन्धन मुक्त
- महावीर – साधना के प्रति समर्पण
नोट – बौद्ध साहित्य में महावीर को निगन्ठनाथ पुत्र कहा गया है।
महावीर स्वामी ने अपने पहले उपदेश मगध की राजधानी राजगृह के निकट वितुलांचल पहाड़ी पर मेघकुमार को दिए| जालिम इनके प्रथम शिष्य थे जोकि महावीर के दामाद भी था चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री चन्दना इनकी भिक्षुणी हुई।
महावीर के 11 शिष्यों को गणधर कहा गया इनमे से 10 गणधर की मृत्यु महावीर के जीवनकाल में ही हो गया केवल सुधर्मन ही जीवित रहा। महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में 468 ईसा पूर्व पावापुरी (बिहार) में हो गया उसके बाद सुधर्मन ने ही जैन धर्म (Jain Dharm) के प्रचार-प्रसार का कार्य भार संभाला।
Jain Dharm की प्रमुख शिक्षाएँ
महावीर में अपने प्राकृत भाषा में अपना उपदेश दिया और जैन साहित्यों की रचना भी प्राकृत भाषा में किया गया।
जैन धर्म में संसार को दुःख मूलक माना है मनुष्य वृधवस्था तथा मृत्यु से ग्रस्त है सांसारिक जीवन की तृष्णाएँ व्यक्ति को घेरी रहती है यही दुःख का मूल कारण है संसार त्याग एवं संन्यास मार्ग ही व्यक्ति को सच्चे मार्ग पर ले जा सकता है।
महावीर स्वामी का कहना था की संसार दुखों से भरा है और दुःख का कारण कर्मफल है अर्थात मनुष्यों को उनके कर्म के अनुसार फल मिलता है फिर उसके कर्म ही दुखों का कारण बनता है इस दुखों से मुक्ति के लिए त्रिरत्न का मार्ग बताएँ।
त्रिरत्न
- समाक्य दर्शन – सत्य में विश्वास
- समाक्य ज्ञान – वास्तविक ज्ञान
- समाक्य आचरण – सुख दुःख में समान
महाव्रत एवं अनुव्रत
सम्यक (महाव्रत) आचरण के पालन के सन्दर्भ में पांच महाव्रतों का पालन अनिवार्य बताया है। इनमे से अहिंसा को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया।
- अहिंसा (हिंसा ना करना)
- अमृषा (झूठ ना बोलना)
- अपरिग्रह (संग्रह ना करना)
- अस्तेय (चोरी ना करना)
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य को बाद में महावीर के द्वारा जोड़ा गया जबकि अन्य चार महाव्रत को 23वें तीर्थंकर पश्र्वर्नाथ के द्वारा दिया गया था।
गृहस्त जीवन जीने वाले जैनियों के लिए इन्ही व्रतों की व्यवस्था है किन्तु इनकी कठोरता में कमी की गई है इसलिए इन्हें अनुव्रत कहा गया है।
सम्यक ज्ञान
जैन धर्म (Jain Dharm) के अनुसार सम्यक ज्ञान पांच प्रकार के होते है और इनके तीन स्रोत्र हैं प्रत्यक्ष, अनुमान तथा तीर्थंकरों के वचन।
- मति (इन्द्रिय जनित ज्ञान)
- श्रुति (श्रवण ज्ञान)
- अवधि (दिव्य ज्ञान)
- मन:पर्याय (दुसरे के मन को जान लेना)
- कैवल्य ज्ञान (सर्वोच्य ज्ञान)
जीव-अजीव
- अजीव (निर्जीव) का विभाजन पांच भागों में किया गया है|
- पुदगल – वह तत्व जिसका संयोग एवं विभाजन किया जा सके
- धर्म – जो गति का साधन अथवा स्थिर है
- अधर्म – जो स्थिरता का साधन अथवा स्थिति है।
- काल
- आकाश
विश्व में असंख्य आत्माएं है जोकि उज्जवल, सर्वज्ञता और आनंदमय है आत्मा की शुद्धी लम्बे समय तक उपवास, अहिंसा और इन्द्रिय निग्रह के द्वारा संभव है।
अज्ञानता के कारण कर्म जीव की ओर आकर्षित होने लगता है जिसे आश्र्व कहते है कर्म का जीव के साथ संयुक्त हो जाता ही बंधन है।
आत्मा में कर्म के प्रवाह को रोकना संवर तथा प्रविष्ट कर्म को बाहर निकालने की प्रक्रिया निर्जरा कहलाती है।
अनंत चतुष्टक
जब जीव से कर्म का अवशेष विल्कुल समाप्त हो जाता तब वह मोक्ष (कैवल्य) की प्रप्प्ती कर लेता है ऐसे स्तिति में आत्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य तथा तानंद आनंद की स्तिति में होती है जिसे आनंद चतुष्टय कहा गया है।
कैवाल्य
जैन धर्म में केवल संघ के सदस्यों के लिए कैवल्य का प्रावधान है सामान्य गृहस्थों के लिए नहीं, सामान्य गृहस्थों को सन्यासी या भिक्षु के जीवन में प्रवेश करने के पूर्व 11 कोटियों से गुजरना पड़ता है।
जैन धर्म में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, मोक्ष पर विश्वास करता है किन्तु वर्ण व्यवस्था की निंदा करता है। जैन धर्म वेद के अपौरुषेयता एवं ईश्वर के अस्तिव को नहीं मानता अतः जैन धर्म (Jain Dharm) को नास्तिक माना गया।
संलेखन
जैन धर्म में अहिंसा एवं काय क्लेश पर अत्याधिक ध्यान दिया गया है काय क्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा आत्महत्या का विधान है इसी पद्धति को संलेखन एवं निषिद्धि कहा जाता है। महावीर में अपना उपदेश प्राकृत (अर्ध मागधी) भाषा में दिया है इस धर्म के मुख (क्रोड़) के सिद्धांत को अनेकांतवाद, स्यादवाद, स्प्रपंगी सिद्धांत, सप्रतिध सिद्धांत अथवा नयवाद के नाम से जाना जाता है।
जैन संघ एवं सम्प्रदाय
महावीर के मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन बचा जोकि की जैन संघ का प्रमुख बना सुधर्मन के मृत्यु के बाद जम्बूस्वामी 44 वर्षों तक जैन संघ का प्रमुख रहा और यह अंतिम केवलिन था।
300 ईसा पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध साम्राज्य में लगभग 12 वर्षो का भीषण अकाल पड़ा इस अकाल के दौरान भद्रबाहू अपने अनुयायीओं के साथ श्रावेनगोला (दक्षिण भारत) चले गए, जबकि स्थुलभद्र मगध में ही रहें।
जब भद्रबाहू वापस मगध आयें तो उन्होंने देखा की मगध में जैन परम्पराएँ तेजी से बदल रहा है, इन बदले हुए परम्पराओं का नेतृत्व स्थुलभद्र कर रहे थे जबकि भद्रबाहु जोकि पुराने परम्पराओं को ही मान रहे थे उन्होंने ने किसी भी बदलाब को स्वीकार नहीं कियें।
यहीं से मतभेध उत्पन होना शुरू हुआ और चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में जैन धर्म (Jain Dharm) दो भागों में विभक्त हो गया एक श्वेताम्बर तथा दूसरा दिगाम्बर। श्वेताम्बर के संस्थापक स्थुलभद्र बने तथा दिगाम्बर के संस्थापक भद्रबाहु बने।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में अंतर
श्वेताम्बर | दिगाम्बर |
श्वेत वस्त्र धारी | विना वस्त्र के |
महावीर को भगवान् मानकर पूजा | महावीर को केवल पुरुष मानें |
स्त्रियों के लिए मोक्ष्य | स्त्रियों के लिए मोक्ष्य संभब नहीं |
कैवल्य प्राप्ति के बाद भी भोजन की आवश्यकता | कैवल्य प्राप्ति के बाद भी भोजन की आवश्यकता नहीं |
परिवर्तन को स्वीकार | परिवर्तन को नहीं स्वीकार |
महावीर विवाहित थे | महावीर विवाहित नहीं थे |
Jain Dharm का प्रचार
महावीर के समय जैन धर्म का सबसे प्रचार – प्रसार हुआ महावीर के समकालीन बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदायीन, महापद्ममनन्द, चन्द्रगुप्त मौर्य तथा खारवेल आदि जैन धर्म (Jain Dharm) के अनुयाई था।
गंग वंश का राज राजमल के मंत्री व सेनापति चामुण्डराय ने 974 ई० में श्रवणवेलगोला में बाहुवली की मूर्ति का निर्माण करवाया जिसे की गोमतेश्वर की मूर्ति कहा जाता है यहाँ प्रत्येक 12 वर्ष में महामस्तिकाभिषेक किया जाता है।
जैन संगीतियाँ
क्रम | सम्मलेन वर्ष | स्थान | अध्यक्ष | मुख्य बिंदु |
---|---|---|---|---|
प्रथम | 322 से 398 ईसा पूर्व | पाटलिपुत्र | स्थुलभद्र | 12 अंगों का संकलन |
द्वितीय | 512 ई० | वल्लभी | क्षमाश्रवण/देवार्धि | 11 अंगों को लिपि वध किया गया |
जैन साहित्य
जैन साहित्य को आगम (सिद्धांत) कहा जाता है यह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में लिखे गए है प्राचीनतम जैन ग्रन्थ को पूर्व कहा जाता है जिनकी संख्या 14 है।
जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र में जैन भिक्षुओं के आचारय नियम, भगवती सूत्र में महावीर के जीवन, नाय धम्मकष सत्त में महावीर की शिक्षाओं का संग्रह तथा उपवासदाओं में उपासकों के जीवन संबंधी नियम दिए गए है।
जैन धर्म का प्रचार-प्रसार प्राकृत भाषा में किया गया लेकिन साहित्य की रचना संस्कृत व अर्धमगधी भाषा में किया गया।
जैन धर्म से संवंधित कुछ प्रमुख पुस्तकें
- अंग – इसमें जैन सिधान्तों के बारे में वर्णन किया गया है इसकी संख्या 12 है।
- उपांग – अंग को समझने के लिए उपांग की रचना किया गया इसकी संख्या 12 है इसमें अंग के बारे में विस्तार से बताया गया है।
- प्रकीर्ण – इसमें विभिन्य ग्रंथो का विशेश्लेषण किया गया है इसकी संख्या 10 है।
- छेद्सुत्र – इसमें जैन भिक्षुकों और भिक्षुनियों के नियम एवं आचरण के बारे में चर्चा किया गया इसकी संख्य 6 है।
- मुलसुत्र – इसमें भी जैन भिक्षुकों और भिक्षुनियों के बारे में चर्चा किया गया है इसकी संख्या 4 है।
- भगवती सूत्र – इसमें महावीर तथा अन्य जैन तीर्थंकर के जीवन चरित्र के बारे में जनकारी मिलती है।
- कल्प सूत्र – इसकी रचना भद्रबाहु ने किए इसमें जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास के बारे में जनकारी मिलती है।
भद्रबाहु द्वारा लिखित कल्पसूत्र, हरिभद्र सूरी कृत अनेकान्त विजय एवं धर्मबिन्दु तथा सर्वनन्दी कृत लोकविभंग प्रमुख जैन साहित्य है।
भद्रबाहु द्वारा लिखित कल्पसूत्र संस्कृत भाषा में लिखा गया है इसमें तीर्थंकरों के जीवन चरित्र के बारे में लिखा गया है।
Jain Dharm के तीर्थंकर एवं उनके प्रतीक
क्रम | तीर्थंकर | प्रतीक चिन्ह |
1 | ऋषभदेव | वृषभ |
2 | अजितनाथ | गज |
3 | सम्भवनाथ | अश्व |
4 | अभिनन्दनाथ | कपि |
5 | सुमतिनाथ | क्रंच |
6 | पद्मप्रभु | पद्म |
7 | सुपाशार्वनाथ | स्वास्तिक |
8 | चन्द्रप्रभु | चन्द्र |
9 | सुविधिनाथ | मकर |
10 | शीतलनाथ | श्रीवत्स |
11 | श्रेयांसनाथ | गैंण्डा |
12 | पुज्यनाथ | महिष |
13 | विमलनाथ | वाराह वाराह |
14 | अनन्तनाथ | श्येन |
15 | धर्मनाथ | अज |
16 | शांतिनाथ | मृग |
17 | कुन्थुनाथ | वज्र |
18 | अरहनाथ | मीन |
19 | मल्लिनाथ | कलश |
20 | मनुसुव्रत | कुर्म |
21 | नेमिनाथ | नीलोत्पल |
22 | अरिष्टनेमि | शंख |
23 | पाशर्वनाथ | सर्पफन |
24 | महवीर | सिंह |
Jain Dharm ka Patan
जैन धर्म के पतन के बहुत सारे कारण रहे जैसे की अहिंसा पर अत्याधिक बल देना आज के समय में देखा जाय तो भी अत्याधिक उदार नुकसानदेह सावित होता है। पतन के और भी कई कारण रहें जैसे की आत्मपीड़ा, कठोर व्रत एवं तपस्या| इसके अलावे बौद्ध धर्म का विस्तार व ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान।
जैन धर्म से संवंधित अन्य तथ्य
मथुरा कला विकास मथुरा में हुआ जिसमे मुख्य रूप से जैन मूर्तियों का निर्माण हुआ इसलिए मथुरा कला को जैन धर्म से जोड़कर देखा जाता है।
खजुराहों मंदिर (मध्य प्रदेश) का संवंध हिन्दू धर्म तथा जैन धर्म से संवंधित है इस मंदिर का निर्माण चन्देल शासकों के द्वारा बनवाया गया था।
दिलवाड़ा का जैन मंदिर माउंट आबू (राजस्थान) में स्थित है इसका निर्माण सोलंकी शासकों ने बनबाया था, हालाँकि इसके निर्माण का श्रेय खासकर विमल शाह को दिया जाता है।
बाहुवली के विशाल मूर्ति श्रावणवेलगोला (कर्नाटक) में स्थित है इसे जैन धर्म से जोड़कर देखा जाता है, इसका निर्माण गंग वंश के मंत्री चामुन्ड राय ने करवाया था।
जैन धर्म में एक पक्ष जोकि ईश्वर को मानते थे वो आस्तिक हुए और जो नहीं मानतें थे वो नास्तिक हुए और इन्ही के बीच मार्ग को ही स्यादवाद एवं अनेकांतवाद के नाम से जाना जाता है, जिसे बाद में महावीर स्वामी ने भी स्वीकार किए ताकि दोनों के बीच के लोगों को भी जैन धर्म में जोड़ा जा सके।
- जैन और बौद्ध दोनों नास्तिक माना जाता है क्योंकी इन दोनों ने वेदों की प्रमाणिकता को नहीं मानता।
- जैन में देवताओं के अस्तितिव को स्वीकार किया गया।
- जैन संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है सृष्टिकर्ता के रूप में ईस्वर को नहीं।
- जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गई है।
- महावीर के अनुसार पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य व पाप के आधार पर ही किसी व्यक्ति का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है।
- जैन पूर्व जन्म एवं कर्मवाद पर विश्वास करता है कर्म फल ही जन्म एवं मृत्यु का कारण है।
- जैन सांसारिक बन्धनों से मुक्ति परत करने के उपाय बताएँ है।
- जैन अहिंसा पर विषेश वल दिया है।
- जैन कृषि व युद्ध में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया है क्योंकी इससे हिंसा होती है।
- स्वयादवाद व सप्रिमंग्नीय जैन धर्म का महत्वपूर्ण दर्शन है जो ज्ञान की सापेक्षिकता की बात करता है।
- जैन भिक्षुओं के लिए पांच महाव्रत व ग्राहस्तों के लिए पांच अनुव्रत की व्यवस्था है।
- जैन धर्म में संलेखाना से तात्पर्य है उपवास द्वारा शारीर का त्याग।
- जैन धर्म के दो सम्प्रदाय तेरापंती (श्वेताम्बर) और समैया (दिगाम्बर)।
- स्थुलभद्र के अनुयायिओं को श्वेताम्बर कहा गया श्वेताम्बर सफ़ेद वस्त्र धारण करते है इसी सम्प्रदाय ने सबसे पहले महावीर व अन्य तीर्थंकरों की पूजा आरंभ की।
- भद्रबाहु के अनुयायिओं को दिगाम्बर (नग्न) कहा गया इन्हें दक्षनी जैन कहा जाता है।
- जैन ग्रन्थ की रचना प्राकृत भाषा में किया गया है किन्तु कुछ ग्रन्थ की रचना अपभ्रंश शैली में भी की गई है।
- स्यादवाद एवं अनेकांतवाद का संबंध जैन धर्म से संवंधित है।
FAQ Section :
ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर व संस्थापक थें, इनका उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया गया।
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें व अंतिम तीर्थंकर हुए।
जैन धर्म के पतन के बहुत सारे कारण रहे जैसे की अहिंसा पर अत्याधिक बल देना आज के समय में देखा जाय तो भी अत्याधिक उदार नुकसानदेह सावित होता है। पतन के और भी कई कारण रहें जैसे की आत्मपीड़ा, कठोर व्रत एवं तपस्या| इसके अलावे बौद्ध धर्म का विस्तार व ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान।
जैन धर्म में अहिंसा एवं काय क्लेश पर अत्याधिक ध्यान दिया गया है काय क्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा आत्महत्या का विधान है इसी पद्धति को संलेखन एवं निषिद्धि कहा जाता है। महावीर में अपना उपदेश प्राकृत (अर्ध मागधी) भाषा में दिया है इस धर्म के मुख (क्रोड़) के सिद्धांत को अनेकांतवाद, स्यादवाद, स्प्रपंगी सिद्धांत, सप्रतिध सिद्धांत अथवा नयवाद के नाम से जाना जाता है।
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