गुलाम या मामलुक वंश : Gulam Vansh

Gulam vansh : 1206 ई० से 1290 ई० तक दिल्ली पर गुलाम वंश (Gulam vansh) के शासन माना जाता है किन्तु इस दौरान गुलाम वंश (Gulam vansh) के राजवंशों के अंतर्तीगत तीन राजवंश, कुतुबी वंश (1206 – 11 ई०), शम्सी वंश (1211 – 66 ई०) तथा बलबन वंश (1266 – 90 ई०) के नौ शासकों ने शासन किया।

गुलाम वंश (Gulam vansh) पाठ्क्रम में दिया गया है

  • गुलाम वंश (Gulam vansh)
  • कुतुबुद्दीन ऐबक
    • अढाई दिन का झोपड़ा
    • बिहार व बंगाल
    • ऐबक के उपलब्धि
    • मृत्यु
  • आरामशाह
  • इल्तुतमिश
    • गुलामों से सुरक्षा
    • ताजुद्दीन याल्दोज
    • नासिरुद्दीन कुबाचा
    • मंगोलों से सुरक्षा
    • सीमा विस्तार
    • इल्तुतमिश के कार्य 
    • प्रशासनिक व्यवस्था
    • इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी 
    • इल्तुतमिश के बारे में
  • रजिया सुल्तान
  • मुईनुद्दीन बहरामशाह (1240 से 1242 ई०)
  • अलाउद्दीन मसुद्शाह (1242 से 1246 ई०)
  • नसीरुद्दीन महमूद (1246 से 1265 ई०)
  • ग्यासिद्दीन बलबन (1265 से 1287 ई०)
    • बलबन का सिद्धांत
    • फारसी व्यवस्था का प्रभाव
    • विभागों का गठन
    • कार्यवाई 
    • विद्रोह
    • मंगोल आक्रमण
    • अमीर खुसरो और अमीर हसन
  • उत्तराधिकारी
  • अन्य

गुलाम वंश ((Gulam vansh))

मुहम्मद गौरी भारत से लौटते समय अपने विजित प्रदेशो को अपने गुलामों को सौप दिया, कुतुबुद्दीन ऐवक, मुहम्मद गौरी के गुलामों में से एक था, गौरी के मृत्यु के बाद कुछ विशिष्ट जनों के कहने पर कुतुबुद्दीन ऐबक शासक बना और इसी के द्वारा गुलाम वंश (Gulam vansh) की स्थापना किया गया तथा लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।

कुतुबुद्दीन ऐबक एक गुलाम था अतः इसके द्वारा स्थापित वंश को गुलाम वंश (Gulam vansh) कहा गया। इस वंश के जितने भी प्रमुख शासक हुए वह सभी किसी ना किसी का गुलाम था।

मुहम्मद गौरी के मृत्यु के बाद गौरी के बड़े भाई गियासिद्दीन महमूद 1208 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक को दासत्व से मुक्त कर दिया। गौरी के पास कई गुलाम हुआ करता था किन्तु एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक शासक बन जाता है तो इसलिए गुलामों में बीच संघर्ष शुरू हो जाता है।

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 से 1210 ई०)

कुतुबुद्दीन ऐबक क़ुतुब जनजाति का एक तुर्क था जिसे फ़रुख्रुद्दीन अब्दुल अजीज कुकी नामक एक काजी ने एक दास के रूप में ख़रीदा था। ऐबक कुराना अच्छी स्वर में पढता था इसलिए यह कुरान खां के नाम से भी प्रसिद्ध हो गया। बाद में इसे गौरी ने खरीद लिया। गौरी ने इसकी क्षमता को देखते हुआ इसे आमिर-ए-आखुर (अस्वतल को देखभाल करने वाला) बना दिया।

मुहम्मद गौरी के मृत्यु के बाद गौरी के बड़े भाई गियासिद्दीन महमूद 1208 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक को दासत्व से मुक्त कर दिया। गौरी के पास कई गुलाम हुआ करता था किन्तु एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक शासक बन जाता है तो इसलिए गुलामों में बीच संघर्ष शुरू हो जाता है।

गुलामों में से नासिरुधीन कुबाचा और ताजुद्दीन एल्दौज से ऐबक को हमेशा खतरा रहता था इस कारण ऐबक ने लाहौर को राजधानी बनाया था ताकि वह अपने चाहने वाले लोगों के ही बीच रह सके जिन्होंने उसे गद्दी पर बैठाया है।

ऐबक की मृत्यु 1210 ई० में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े पर से गिर कर हो गया और इसे लाहौर में ही दफनाया दिया गया। ऐबक के मृत्यु के बाद इसका पुत्र आरामशाह शासक बना लेकिन अमीरों ने इसकी आयोगता के कारण जल्द ही इसे गद्दी से हटा दिया और इल्तुतमिश को गद्दी पर बैठा दिया इल्तुत्मुश भी कुतुबुद्धीन ऐबक का गुलाम व दामाद था। आरामशाह गद्दी को वापस पाने के लिए इल्तुतमिश से युद्ध करता है लेकिन अरामशाह की पराजय हो गया।

कुतुबमीनार इसके पहले मजिल का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक के काल में, 2-4 वें मंजिल का निर्माण इल्तुतमिश के काल में तथा 5वें मंजिल का निर्माण फिरोजशाह तुगलक के काल में हुआ।

  • ऐबक ने मालिक और सिपहसलार की उपाधि धारण किया।
  • इसे लाख बक्स (लाखों का दान देने वाला) कहा गया।
  • कुतुबमीनार, ढाई दिन का झोपड़ा, और कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद
  • कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण लगभग 27 विष्णु मंदिरों व जैन मंदिरों को तोड़कर बनबाया था।
  • ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है।

अढाई दिन का झोपड़ा

अजमेर स्थित चौहान वंशी शम्रत विग्रहराज चतुर्थ संस्कृत विद्यालय को तोड़कर “अढाई दिन का झोपड़ा” मस्जिद का निर्माण करवाया। इस इमारात पर आज भी संस्कृत नाटक ‘हरिकेली’ के कुछ अंश अंकित है।

बिहार व बंगाल

ऐबक के अधिकारी बख्तियार खिलजी ने भर और बंगाल पर आक्रमण किया और नालन्दा स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय को नष्ट कर हजारों दुर्लभ पांडुलिपियाँ जला दी।

आक्रमण से समय बंगाल पर सेन वंशी शासक लक्षमण सेन का शासन था अतः इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और लखनौती को राजधानी बनाया।

अली मर्दान खां, बख्तियार खिलजी हत्या कर दी अंत में ऐबक बंगाल में कैमाजरुमी को भेजा जिसने  अली मर्दान खां को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर बंगाल को दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बना लिया।

ऐबक उपलब्धि

ऐबक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी की इसने गजनी से संबंध विच्छेद कर भारत को उसके प्रभाव से मुक्त रखा।
वजीर पद का प्रचालन ऐबक के काल में हुआ था, फख्र ए मुदव्विर ऐबक का पहला वजीर व भरात का पहला मुस्लिम राजनितिक विचारक बना।

ऐबक प्रसिद्ध सूफी संत ‘ख्वाजा बख्तियार काकी’ के नामस इ कुतुबमीनार की नींव रखी जिसे बाद में इल्तुतमिश पूरा करवाया।

कुतुबमीनार इसके पहले मंजिल का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक के काल में, 2-4 वें मंजिल का निर्माण इल्तुतमिश के काल में तथा 5वें मंजिल का निर्माण फिरोजशाह तुगलक के काल में हुआ।

ऐबक ने राय पिथौरा के निटक शहर बसाया जोकि मध्यकाल में निर्मित दिल्ली के सात शहरों में प्रथम शहर था।

मृत्यु

1210 ई० में लाहौर में चौगान (पोलो) सलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गयी और इसे लाहौर में दफनाया गया। ऐबक के मृत्यु उपरांत 1210 ई० ऐबक पुत्र आरामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

अन्य मुख्य तथ्य

नोट – इतिहासकर हबीबुल्लाह इसे ‘मामलुक’ कहा जोकि की अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘स्वतंत्र माता-पिता से उत्तपन संतान’।

नोट – इस वंश के जितने भी प्रमुख शासक हुए वह सभी किसी ना किसी का गुलाम था।

  • ऐबक ने मालिक और सिपहसलार की उपाधि धारण किया।
  • इसे लाख बक्स (लाखों का दान देने वाला) कहा गया।
  • कुतुबमीनार, ढाई दिन का झोपड़ा, और कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद
  • कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण लगभग 27 विष्णु मंदिरों व जैन मंदिरों को तोड़कर बनबाया था।
  • ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है।

आरामशाह (1210 – 11 ई०)

ऐबक के मृत्यु उपरांत दिसम्बर 1210 ई० ऐबक पुत्र आरामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा लेकिन इसकी आयोगता के कारण अमीरों ने इसका विरोध किया और ऐबक के दामाद इल्तुतमिश का साथ दिया।

जून 1211 ई० में जुद के मैदान में इल्तुतमिश अरामशाह और विद्रोहियों को परास्त कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा। आरामशाह गद्दी को वापस पाने के लिए इल्तुतमिश से युद्ध किया किन्तु अरामशाह की पराजय हो गयी।

इल्तुतमिश ऐबक का गुलाम एवं दामाद था इल्तुतमिश को ऐबक ने 1197 ई० में हुए अन्हिलवाड के युद्ध के बाद एक लाख जीतल में ख़रीदा। जोकि की गुलाम वंश (Gulam vansh) का अगला शासक बना।

इल्तुतमिश (1210 से 1236 ई०)

ऐबक का पुत्र आरामशाह एक अयोग्य शासक था इस कारण अमीरों ने उसे गद्दी से हटाकर इल्तुतमिश को गद्दी पर बैठाया। जिसे वापस पाने के लिए आरामशाह ने संघर्ष किया इस युद्ध में इल्तुतमिश ने जीत हासिल कर गद्दी को सुरक्षित रखा।

इल्तुतमिश गद्दी पर बैठने से पहले बदायूँ का इक्तेदार (सूबेदार) था, गद्दी बैठने के बाद ही इल्तुतमिश राजधानी लाहौर से स्थान्तरित कर दिल्ली ले आया।

दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माने जाने वाले इल्तुतमिश का वास्तविक नाम शमसुद्दीन इल्तुतमिश था। दिल्ली पर शासन करने वाला यह प्रथम इल्बारी शासक था।

इल्तुतमिश कुतुबुद्दीन के दामाद और गुलाम भी था जिसे ऐबक ने 1 लाख जीतल में ख़रीदा था। ऐबक स्वयं भी एक गुलाम था इस कारण इल्तुतमिश को “गुलामो का गुलाम” कहा जाता है।

धार्मिक रूप से सकीर्ण सोच रखने वाले इल्तुतमिश ने 1234-35 ई० में भिलसा के हिन्दू मंदिर तथा उज्जैन के महाकाल मंदिर को लुटा और विक्रमादित्य की मूर्ति को दिल्ली लाया।

गुलामों से सुरक्षा

मुहम्माद गौरी के गुलामों में से दो ऐसे गुलाम थे जिससे गुलामवंशी शासकों को हमेश खतरा रहता था। अतः इल्तुतमिश युद्ध कर इस खतरे को समाप्त किया।

  • ताजुद्दीन याल्दोज
  • नासिरुद्दीन कुबाचा

ताजुद्दीन याल्दोज

ताजुद्दीन याल्दोज (गजनी शासक) जिससे की ऐबक को हमेशा खतरा रहता था गजनी पर अधिकार हेतु ख्वारिज्म शाह के साथ युद्ध हुआ जिसमें ताजुद्दीन याल्दोज पराजय हुई और भाग कर लाहौर आ गया।

भविष्य में ताजुद्दीन याल्दोज से दिल्ली की गद्दी का कोई खतरा ना हो इसलिए 1216 ई० में हुए तराइन के तीसरे युद्ध में ताजुद्दीन याल्दोज को पराजित कर बन्दी बना लिया और बदायूं के किले में इसकी हत्या कर दी।

नासिरुद्दीन कुबाचा

इल्तुतमिश नासिरुधीन कुबाचा को भी गद्दी के लिए खतरा मानता था अतः कुबाचा जोकि मुल्तान और सिंध के क्षेत्र में शासन करता था। इल्तुतमिश आक्रमण कर उन क्षेत्रों को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।

हार से हतास होकर नासिरुधीन कुबाचा सिन्धु नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली।

मंगोलों से सुरक्षा

1221 ई० में ख्वारिज्म के शाह जोकि गजनी में शासन कर रहा था उसे चंगेज खां (मंगोल) पराजित कर गजनी पर अधिकार कर लिया।

ख्वारिज्म का पुत्र जलालुद्दीन मंगबरनी इल्तुतमिश से सहायता मांगने के उद्देश्य से भागकर भारत आया इसी का पीछा करते हुए चंगेज खां सिन्धु नदी के किनारे तक आया।

भविष्य में मंगोलों से दिल्ली की गद्दी पर कोई संकट ना हो अतः जलालुद्दीन मंगबरनी के राजदूत इयान-ए-मुल्क का वध करवा दिया।

मंगबरनी को सहयाता नहीं करने के कारण इल्तुतमिश उस समय दिल्ली को मंगोल आक्रमण से सुरक्षित रखा।

मंगोलों से लड़ते हुए 1229 ई० में ही इल्तुतमिश के बड़े पुत्र नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु हो गया। जिस कारण इल्तुतमिश अपने जीवन काल में ही पुत्री रजिया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

सीमा विस्तार

1226 ई० में में रणथम्भोर, जालौर (चौहान), बयाना, सांभर,अ अजमेर, नागौर को तथा गयासुद्दीन को पराजित कर बंगाल को पुर्णतः अपने अधीन कर लिया।

1236 ई० में बामियान शासक सेफुद्दीन हसन पर आक्रमण करने के उद्देश्य से जाते समय इल्तुतमिश रास्ते में बीमार हो गया और लौट कर दिल्ली आ गया। अंततः 30 अप्रैल 1236 ई० में इल्तुतमिश की मृत्यु हो गई।

इल्तुतमिश के कार्य  

इल्तुतुमिश ने इक्ता प्रणाली विकसित की। इक्ता स्थानान्तरणीय भू-भाग का राजसत अधिन्यास था जो नकद वेतन के बदले दिया जाता था।

इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाये और टकसालों पर नाम लिह्वाने की परम्परा की शुरुआत की। चाँदी का टंका और (175 ग्रेन) ताम्बे का जीतल भी प्रारंभ किया। 

इब्बनबतूता लिखते है की इल्तुतमिश के महल के सामे संगमरमर के दो सिंह बने थे। जिसके गले में घंटियाँ लटकी होती थी जिन्हें खींचने पर फरियादी को तुरंत न्याय मिलता था।

प्रशासनिक व्यवस्था

कुत्बी एवं मुइज्जी सरदारों के विरोध के कारण प्रशानिक व्यवस्था को चलाने के लिए अपने 40 वफादार तुर्क गुलामों का समूह तैयार किया जिसे बरनी (इतिहासकार) ने चालीसा या ‘तुर्कान-ए-चहलगानी’ कहा गया। जिसका प्रथम उल्लेख इसामी की पुस्तक फुतूह-उल-सलातीन में है।

  • पहलीबार शुद्ध अरबी सिक्के चलाया
  • चाँदी के सिक्के व ताम्बे के सिक्के चलवाया
  • इल्तुतमिश को बगदाद के खलीफा ने सुल्तान की उपाधि प्रदान किया था।
  • इसे दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।

इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी 

मंगोलों से लड़ते हुए इल्तुतमिश के बड़े पुत्र नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु 1229 ई० में हो गई और छोटे पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज अयोग्य था। जिस कारण इल्तुतमिश अपने जीवन काल में ही पुत्री रजिया सुल्तान को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

किन्तु रुकनुद्दीन फिरोज (रजिया का भाई) जोकि एक अयोग्य शासक था अमीरों ने उसे ही गद्दी पर बैठा जिससे राज्य में विद्रोह हो गया। इसी का लाभ उठाकर रजिया अपने भाई को बंदीगृह में डाल दिया और खुद गद्दी पर बैठ गयी।

इल्तुतमिश अन्य तथ्य  
  • दरबारी अधिकारियों के सामने गद्दी पर बैठने से हिचकता था।
  • अधिराजत्व में विशवास करता था ना की संप्रभुत्ता में
  • मृत्यु के बाद चालीसा या ‘तुर्कान-ए-चहलगानी’ सुल्तान निर्माता की भूमिका में आ गएँ।
  • मिन्हाज के अनुसार वे (चालीसा) एक दुसरे से कहते थे “मई और एनी कोई नहीं, आप क्या है जो मै नहीं हूँ और आप क्या नहीं थे जो मै नहीं रहा।

रजिया सुल्तान (1236 से 1240 ई०)

इल्तुतमिश रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया पर रजिया एक मुस्लिम महिला था अतः इसके लिए यह सफ़र इतना आसान नहीं था और कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

इल्तुतमिश के मृत्यु के बाद अमीरों ने रुकनुद्दीन फिरोज शाह को गद्दी पर बैठाया हालाँकि वास्तविक सत्ता फिरोज के माँ शाह तुर्कान के हाथों में था जोकि की एक तानाशाह थी।

रजिया

रजिया लोगों से सहायता मांगीं, सहायता से रुकनुद्दीन फिरोज को अपदस्त कर दिल्ली की गद्दी पर बैठी। यह पहली बार था जब दिल्ली की जनता ने उत्तराधिकार के प्रश्न पर स्वंय निर्णय लिया।

रजिया सुल्तान सत्ता सँभालने वाली प्रथम मुस्लिम महिला शासिका थी। शासिका बनते ही राज्यों विद्रोह हो गया जिसे रजिया सुल्तान ने सफलतापूर्वक दबा दिया।

रजिया पर्दा प्रथा को त्याग कर पुरषों की तरह वस्त्र धारण करने लगी जोकि निजी तौर पर इस्लाम धर्म के विरुद्ध था अतः हर तरफ से विरोध का सामना करना पड़ा।

रजिया ने एतगिन को बदायूं का तथा अल्तुनियाँ को भटिन्डा (ताबहिन्द) का सूबेदार नियुक्त किया।

रजिया का लोगों का समर्थन था परन्तु बदायूं, मुल्तान, हांसी व लाहौर के गवर्नर, इल्तुतमिश के समय वजीर रहे मुहम्मद जुनैदी, मालिक अलाउद्दीन जानी, कबीर अयाज खां, मालिक इजुद्दीन सलारी, मालिक सैफुद्दीन कुची विरुद्ध थे।

रजिया के समय से सुल्तान और तुर्क अमीरों के बीच संघर्ष शुरू हो गया जोकि बलबन के सत्तारूढ़ तक चला।

अल्तुनियाँ ने विद्रोह कर दिया जिसका लाभ उठाकर अमीरों ने रजिया के भाई मुईनुद्दीन बहराम शाह को दिल्ली के गद्दी पर बैठा दिया।

अपनी स्थिति को पुनः स्थापित करने के लिए अल्तुनिया नामक एक तुर्क व्यक्ति से शादी की किन्तु रजिया को इसका कोई खास लाभ नहीं मिला।

कुछ समय पश्चात अल्तुनिया और रजिया सुल्तान दोनों संयुक्त सेना की सहायता से मुईनुद्दीन बहरामशाह पर आक्रमण किया किन्तु पराजित हो गई।

पराजय के बाद मार्ग में ही सभी तुर्कों ने मिलकर अल्तुनिया और रजिया सुल्तान इन दोनों को 1240 ई० में कैथल नामक स्थान पर हत्या कर दिया।

मुईनुद्दीन बहरामशाह (1240 से 1242 ई०)

रजिया सुल्तान के बाद मुईनुद्दीन बहरामशाह गद्दी पर बैठा किन्तु बहरामशाह को सुल्तान इस शर्त पर बैठाया गया की एतगिन (तुर्क नेता) को नायब-ए-मुमलकात के पद पर नियुक्त करेगा।

बहरामशाह नायब-ए-मुमलकात पद का सृजन किया जिससे सत्ता के तीन प्रमुख पद हो गए सुल्तान नायब और वजीर।

एतगिन को नायब-ए-मुमलकात नियुक्त किया, नियुक्त होते ही एतगिन औपचारिक रूप से सत्ता अपने हाथों में ले लिया और मुईनुद्दीन बहरामशाह को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करने लगा जिससे परेशान होकर मुईनुद्दीन बहरामशाह एतगिन की हत्या करवा दी।

हत्या के बाद तुर्कों में बहरामशाह के खिलाफ विरोध होने लगा और जल्द ही यह एक विद्रोह के का रूप ले लिया और विद्रोह दिल्ली तक फ़ैल गया जिसका लाभ उठाकर मुईनुद्दीन बहरामशाह की हत्या कर दी गई।

मुईनुद्दीन बहरामशाह के समय 1241 ई० में लाहौर पर प्रथम मंगोल, ताईर बहादुर का आक्रमण हुआ और सल्तनत की सीमा सिन्धु नदी से व्यास नदी तक सिमट गई।

मुईनुद्दीन बहरामशाह बलबन को हांसी व रेवाड़ी की जागीरें दी।

अलाउद्दीन मसुद शाह (1242 से 1246 ई०)

अलाउद्दीन मसुद्शाह, रुकनुद्दीन फिरोज का पुत्र था, इसने अपने सभी शक्तियों चालीसा को सौंप दी और नाम मात्र का सुल्तान रहा।

मालिक इजुद्दीन किश्लू खां, स्वंय को सुल्तान घोषित कर महलों पर अधिकार कर लिया हालाँकि इसे नागौर की सुबेदारी देकर माना लिया गया।

मसूद शाह ‘बलबन’ आमिर-ए-हाजिब के पद पर नियुक्त था जोकि धीरे-धीरे सत्ता अपने हाथों में लेने लगा। अंततः इसकी अलाउद्दीन मसुद शाह की भी हत्या कर दी गई।

नसीरुद्दीन महमूद (1246 से 1265 ई०)

बलबन सत्ता अपने हाथों में ले लिया था किन्तु विद्रोह से बचने के लिए बलबन ने नसीरुद्दीन महमूद को अपने अधीन रखते हुए गद्दी पर बैठाया। बलबन अपनी पुत्री हुजैदा का विवाह नसीरुद्दीन महमूद से करवा दिया।

नसीरुद्दीन महमूद ने बलबन से गद्दी को सुरक्षित रखने के लिए तुर्कों (अमीरों) के साथ समझौता कर लिया, समझौते के कारण ही महमूद लगभग 20 वर्षों तक गद्दी पर बना रहा।

1249 ई० में नसीरुद्दीन महमूद, बलबन को उलुग खां की उपाधि दी एवं नायब-ए-मुमलकत पद पर नियुक्त किया।

हालाँकि 1253 ई० में इमादुद्दीन रेहान को नायाब के पद पर नियुक्त कर दिया गया किन्तु जल्द ही 1254 ई० में बलबन को पुनः नायाब के पद पर नियुक्त किया गया।

इसी के शासनकाल में बलबन एक नई शक्ति के रूप में उभरा और 1265 ई० में गियासुद्दीन के मृत्यु के बाद बलबन दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

ग्यासिद्दीन बलबन (1265 से 1287 ई०)

बलबन इल्तुतिमिश का गुलाम था लेकिन इसकी योग्यता से प्रभवित होकर इल्तुतमिश में इसे “खसदार” के पद पर नियुक्त किया।

रजिया सुल्तान के शासनकाल में बलबन अमीर-ए-शिकार के पद पर नियुक्त था पर फिर रजिया के विरुद्ध षड्यंत्र में बलबन ने तुर्कों का साथ दिया।

मुईनुद्दीन बहरामशाह के शासनकाल में अमीर-ए-अखनूर के पद पर था।

सुल्तान बनने से पूर्व लगभग 20 वर्षों तक गियासुद्दीन के वजीर के पद रहा किन्तु सुल्तान के सभी शक्तियों का इस्तेमाल किया।

इस प्रकार बलबन समय दर समय अपना कद बढाता गया और धीरे-धीरे सत्ता अपने हाथों में लेता गया अंततः एक समय बाद वह गद्दी पर बैठा। इसने एक नए राजवंश इल्बारी वंश / बलबनी वंश की नीव डाली।

दिल्ली सल्तनत की सत्ता पाने के बाद गियासुद्दीन उपाधि धारण की अतः यह गियासुद्दीन बलबन के नाम से भी प्रचलित हुआ।

इतिहासकार बरनी बलबन को जनता का पिता, नायक, एवं खुफिया कातिल कहा, कातिल इसलिए क्योंकि बलबन गुप्त रूप से अमीरों की हत्याएँ करवाता था।

बलबन का सिद्धांत

बलबन का राजस्व सिद्धांत “लौह एवं रक्त नीति” पर तथा प्रतिष्ठा शक्ति व न्याय पर आधारित था,

बलबन के राजत्व सिद्धांत विस्तृत विवेचना बरनी ने अपनी रचना ‘तारीखे-ए-फिरोजशाही’ में किया है।

दरबार में शराव, नृत्य, संगीत, हँसी मजाक को बंद करवा दिया और दरबारीयों को विशेष वस्त्र (ड्रेस कोड) में आने का आदेश दिया।

बलबन स्वंय को जिल्ले इलाही (इश्वर की छाया) कहा और यह उपाधि सिक्कों पर भी अंकित करवाया।

बलबन उच्य प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति में उच्य वंशावली को ही महत्त्व दिया वहीँ सामान्य लोगों से घृणा करता था।

बलबन साधारण व्यक्तियों से नहीं मिलता था, बरनी ने बलबन के बारे में कहा था की “जब मै किसी तुछ्य परिवार के व्यक्तियों को देखता हूँ तो मेरे शरीर की प्रत्येक नाडी क्रोध से उत्तेजित हो जाती है।

फारसी व्यवस्था का प्रभाव

बलबन ईरानी (फारसी) व्यवस्था से अधिक प्रभावित था अतः शासन व्यवस्था ईरानी (फारसी) आदर्श के आधार पर आधारित की। और पौत्रों का नाम भी कैकुबाद, कैखुसरो, कयूमर्स आदि ईरानी नाम रखें।

दरवार में गैर-इस्लामी प्रथाओं की शुरुआत की।

  • सिजदा / जमीनबोसी (घुटने के बल बैठकर सुल्तान के समक्ष्य सर झुकाना)
  • पायबोस  (सुल्तान के पैर चूमना)
  • नौरोज उत्सव मानना

विभागों का गठन

  • सामन्तों की गतिविधियों पर नजर रखने हेतु पहलीबार दीवान-ए-बरिद (गुप्तचर विभाग) की स्थापना की।
  • दीवाने अर्ज (सैन्य विभाग) की स्थापना की स्थापना की व अहमद अयाज (इमाद-उल-मुल्क) को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया।

कार्यवाई  

  • सुल्तान की प्रतिष्ठा बढ़ने के लिए इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीसा या ‘तुर्कान-ए-चहलगानी’ का दमन किया।
  • सैनिक सेवा के बदले दी हुई जागीरों की जाँच कराई एवं अयोग्य सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त कर दिया।
  • नायब-ए-मुमलकात की पद को समाप्त कर दिया और वजीर के अधिकारों को भी काफी सिमित कर दिया।

विद्रोह

बलबन के समय कई विद्रोह हुए जिसमे बंगला का विद्रोह अधिक महत्वपूर्ण है क्यों की बंगाल विद्रोह एकमात्र विद्रोह था जिसे बलबन दिल्ली से बाहर आकर दबाया। 

1279 ई० में बंगाल सूबेदार तुगरिल खां विद्रोह कर दिया जिसे बलबन अपने पुत्र बुगरा खां के साथ दबा दिया। इसी समय बलबन, बुगरा खां से कहा था की “सुल्तान का पद निरकुंशता का सजीव प्रतिक है”।

बलबन का यह भी मानना था की सुल्तान का पद ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है और उसमे दैवीय अंश होता है।

मंगोल आक्रमण

बलबन के पास विशाल सेना थी किन्तु मंगोल आक्रमण के भय के कारण सीमा विस्तार नहीं किया।

मंगोल आक्रमण से बचने के लिए उत्तर-पश्चमी सीमा पर किलों की श्रंखला बनाई। बलबन सम्पूर्ण सीमांत प्रदेश को दो भागों में विभाजित कर दिया। सुनम, समान एवं उच्छ के प्रान्त को छोटे पुत्र बुगरा खां को तथा मुल्तान, सिन्ध व लाहौर बड़े पुत्र मुहम्मद खां को सौंपी।

तैमुर खां के नेतृत्व में 1286 ई० में हुए मंगोल आक्रमण में मुहम्मद खां मारा गया। मृत्यु के बाद बलबन टूट गया हालाँकि दरबार में गंभीर व्यवहार रखता था।

बलबन जोकि की अनुभवी था किन्तु पुत्र वियोग के कारण लगभग एक वर्ष बाद ही 1287 ई० में बलबन की भी मृत्यु हो गई।

अमीर खुसरो और अमीर हसन

अमीर खुसरो और अमीर हसन देहलवी, मुहम्मद खां की शरण में रहता था, पर मुहम्मद खां के मृत्यु के बाद बलबन के शरण में आ गया।

अमीर खुसरो और अमीर हसन देहलवी (1253-1327 ई०) दोनों मुहम्मद खां के समय ही साहित्यिक की शुरुआत किया। अमीर हसन देहलवी उच्च कोटि का गजल लेखक था अतः देहलवी को ‘भारत का सादी’ कहा गया।

महान फारसी कवि ‘शेख सादी’ को बलबन ने आमंत्रित किया था किन्तु अपनी वृद्ध अवस्था के कारण नहीं आ सका।

उत्तराधिकारी (Gulam vansh ka Patan)

बलबन के बाद से ही Gulam vansh का तेजी से पतन हो गया दरअसल बलबन के मृत्यु के बाद कैकुबाद (बुगरा खां का पुत्र) गद्दी पर बैठा यद्यपि बलबन कैखुसरो को उत्तराधिकारी चुना था।

कुछ समय बाद कैकुबाद को लकवा हो गया इस कारण अमीरों ने कैकुबाद के शिशु पुत्र को शमसुद्दीन कयुमर्स के नाम से गद्दी पर बैठाया था। लकवा होने के कारण तरकेश कैकुबाद को युमना नदी में फ़ेंक दिया।

बलबन का दूसरा पुत्र बुगरा खां बंगाल के सुबेदारी के पद से ही प्रसन्न था अतः गद्दी के लिए अधिक प्रयास नहीं किया।

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी कैकुबाद व कयुमर्स दोनों की हत्या कर गुलाम वंश (Gulam vansh) को समाप्त कर दिया और Gulam vansh के ध्वंसावशेष पर ही खिज्र खां ने, खिलजी वंश को स्थापित किया।

Gulam vansh अन्य तथ्य
  • बलबन एक इल्बरी तुर्क था और इसका वास्तविक नाम बहाउद्दीन था।
  • दिल्ली के कोतवाली फखरूद्दीन से बलबन सलाह लेता था।
  • बलबन दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने वसैय्या (वसीयत) घोषित किया। वसैय्या को बरनी ने संकलित किया।
  • इतिहासकार हबीबुल्लाह बलबन सुदृढ़करण का काल कहा है।

Read More :

Leave a Comment