चालुक्य वंश का इतिहास और विभाजन : Chalukya vansh

चालुक्य वंश (chalukya vansh) जब प्रारंभ में स्थापित हुआ था तो चालुक्यों की केवल एक ही शाखा हुआ करती थी जिसे बादामी/वातपी के चालुक्य कहा गया लेकिन समय के साथ चालुक्यों में विभाजन हुआ और परिणामस्वरूप चालुक्यों की तीन शाखाएँ बनी।

पहली शाखा हुआ करती थी वह बादामी या वातपी के चालुक्य कहलाएँ। दूसरी शाखा पूर्वी शाखा जिसे वेंगी के चालुक्य कहा गया और तीसरी शाखा, पक्षिमी शाखा की शाखा जो कल्याणी का चालुक्य कहलाया।

चालुक्य वंश विभाजन के पूर्व (Chalukya vansh)

बादामी के शाखा को चालुक्यों की सबसे प्राचीनतम शाखा माना जाता है, शुरुआत में इसे पक्षिमी चालुक्य के नाम से जाना जाता था। परंतु कल्याणी के चालुक्य शाखा को अस्तित्व में आने बाद कल्याणी के चालुक्य को पक्षिमी चालुक्य कहा जाने लगा तथा बादामी के चालुक्य को मूल शाखा कहा जाने लगा। 

महाकुट स्तम्भ लेख में पुलकेशिन-1 के पूर्व दो शासक जयसिंह एवं रणराग का उल्लेख मिलता है, लेकिन इसके शासन का विवरण नहीं मिलता है। हालाँकि ये माना जाता है दोनों कदम्ब वंश के शासकों के अधीन बादामी में शासन करते थे।

पुलकेशिन-1 (543 से 566 ई०)

इसलिए पुलकेशिन प्रथम को ही बादामी के चालुक्य शाखा का संस्थापक माना जाता है, इन्होने बादामी को अपनी राजधानी बनाया। और वहीँ एक दुर्ग बनाकर शासन करना शुरू किया।
इन्होने कई उपाधियाँ भी धारण किया जैसे की, स्तायश्रय, रणविक्रम तथा श्रीपृथ्वीबल्लभ (श्रीबल्लभ) आदि।

इन्होने अश्वमेध यज्ञ और वाजपेय यज्ञ करवाएँ थे।

पुलकेशिन प्रथम के दो पुत्र थे कीर्तिवर्मन प्रथम और मंगलेश, कीर्तिवर्मन प्रथम बड़े पुत्र थे इसलिए पिता के मृत्यु के बाद कीर्तिवर्मन प्रथम अगला शासक बना।

कीर्तिवर्मन प्रथम (566 से 597 ई०)

पुलकेशिन प्रथम के मृत्यु के बाद 566 ई० में बड़े पुत्र कीर्तिवर्मन-1 शासक बना।
राजा बनते ही अपने आस-पास के छोटे-छोटे राज्यों को जीतना शुरू किया इस क्रम में बनवासी के कदम्ब, कोंकण के मौर्य, वेल्लारी-कर्नूल के नलवंशी शासकों को पराजित करता है।

इस राजाओं को जीतने के बाद उसे अपनी अधीनता स्वीकार करवा कर बापस छोड़ दिया, उसके सीमाओं को अपने राज्य में नहीं मिलाता है। अतः माना जाय तो जीत का उद्देश्य केवल कीर्ति हाशिल करना था।

महाकूट स्तम्भ लेख में कीर्तिवर्मन प्रथम द्वारा किए गया बहुसुवर्ण अग्निष्टोम यज्ञ का उल्लेख मिलता है।

इसने पुरु-रणपराक्रम तथा स्तायश्रय की उपाधि धारण किया था।

कीर्तिवर्मन प्रथम के तीन पुत्र थे और तीनों ही नवालिक थे इसलिए कीर्तिवर्मन प्रथम मृत्यु के बाद इनके छोटे भाई मंगलेश गद्दी पर बैठा।

मंगलेश (597 से 610 ई०)

जहाँ कीर्तिवर्मन प्रथम आस-पास के छोटे-छोटे राजाओं को केवल जीतता था, उसके राज्य को अपनी सीमा में नहीं मिलाता था तो वहीँ मंगलेश उसे जीतकर उसके क्षेत्र को अपने सीमा में मिलाकर अपने राज्य का विस्तार करने लगा।

नुनेर तथा महाकुट स्तम्भ लेख के अनुसार मंगलेश ने कलचुरी वंश के शासक बुद्धराज पर आक्रमण किया और उसे अपने अधीन कर लिया

इसी स्तम्भ लेख में इस बात का भी उल्लेख मिलता है की मंगलेश ने कोंकण क्षेत्र की राजधानी रेविती द्वीप (गोवा) पर अपना अधिकार कर लिया।

मंगलेश ने अंतिम रूप से कदम्ब वंशो का उन्मूलन (ख़त्म) कर दिया और पुरे क्षेत्र को अपने राज्य में मिला दिया। मंगलेश वैष्णव धर्म का अनुयायी था और इसने “परमभागवत” की उपाधि धारण किया।

इसने बादामी में गुहा मंदिर का निर्माण पूरा करवाया इस मंदिर की नींव कीर्तिवर्मन प्रथम ने रखा था।

पुलकेशिन द्वितीय (610 से 642 ई०)

पुलकेशिन द्वितीय, कीर्तिवर्मन प्रथम का पुत्र और पुलकेशिन प्रथम का पौत्र था जोकि कीर्तिवर्मन प्रथम के मृत्यु के समय नवालिक था।

वालिक होने के बाद गद्दी के लिए मंगलेश और पुलकेशिन द्वितीय के बीच गृह युद्ध छिड़ गया जिससे की बादामी के चालुक्य वंश (chalukya vansh) की शक्तियों भी क्षीण होने लगी जिसका लाभ उठाकर कई प्रदेश स्वतंत्र होने लगें।

इस परस्थितियों के बीच पुलकेशिन द्वितीय ने अपने चाचा मंगलेश की हत्या कर राजा बन गया। यह बादामी के चालुक्य वंश (chalukya vansh) का सबसे प्रतापी शासक था।

पुलकेशिन द्वितीय के समय इसकी सीमा का विस्तार विंध्याचल के दक्षिण के सम्पूर्ण दक्षिण भारत में था। इस साम्राज्य को पुलकेशिन द्वितीय ने दो भागों में बाट दिया।

एक भाग को उसने अपने भाई कुब्ज विष्णु वर्द्धन को दे दिया। जिसे वेंगी का चालुक्य कहा गया और जिस भाग पर पुलकेशिन द्वितीय शासन करता रहा वह बादामी/वातपी का चालुक्य कहलाया।

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