सन्यासी विद्रोह : Sanyasi Vidroh in Hindi

अठारहवीं शताब्दी के अंत में बंगाल के जलपाईगुड़ी के मुर्शिदाबाद और बैकुंठपुर के घने जंगलों से सन्यासी विद्रोह (sanyasi vidroh) जिसे की भिक्षु विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है की शुरूआत हुआ।

सन्यासी विद्रोह (Sanyasi Vidroh)

ब्रिटिश दमनकारी नीतियों के खिलाफ हुए इस विद्रोह को द्विजनारायण और केना सरकार ने नेतृत्व प्रदान किया इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन और उनके शोषण की नीतियों को चुनौती था। इसे ब्रिटिश विरोधी विद्रोह की शुरुआत के रूप में चिन्हित किया जाता है।

पंडित भवानी चरण पाठक इस विद्रोह के प्रमुख नेता बनकर उभरे जो सन्यासी विद्रोह (sanyasi vidroh) के प्रारंभ होने से पहले लगभग एक दशक तक मुर्शिदाबाद में रहें थे और संभवतः भवानी चरण पाठक अंग्रेजों के नीतियों से भलीभांति परिचित रहे होंगे।

विद्रोह के कारण ( Sanyasi Vidroh ke kaaran)

दरअसल अंग्रेजों ने साधू, संतों और सन्यासियों को मंदिरों में प्रवेश से भी वंचित कर दिया इसके परिणामस्वरूप वो सन्यासी जिनके की हाथ हमेशा लोगों आशीर्वाद देने के लिए उठता है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह करने के लिए मजबूर होना पड़ा जोकि इस विद्रोह का मुख्य कारण था।

इसके अलावे इसी दौरान फरवरी 1770 को बंगाल प्रान्त में भीषण अकाल पड़ा इस अकाल के लिए कंपनी को जिम्मेदार ठहराया गया। पर इस प्रस्थिति में भी कंपनी ने वहाँ के लोगों का शोषण करती रही।  

अंग्रेजों के नीतियों से प्रभावित लोग इस आन्दोलन से जुड़ने लगे इतना ही वल्कि वो किसान भी इस आन्दोलन से जुड़ गए जिन किसानों को अंग्रेजों ने उसकी जमीनों से कभी ना कभी बेदखल कर दिया था।

मतलब की उन सबने हथियार उठा लिए जो किसी ना किसी तरह से कंपनी और उसके सहयोगियों के शोषण से प्रभावित थें।

विद्रोह की शुरुआत (sanyasi vidroh ki shuruaat)

अप्रैल 1770 में सबसे पहले बंगाल के बैकुन्ठपुर में विद्रोह हुआ, जिसे 1770 के घटना के नाम से जाना जाता है। यह जल्द ही मुर्शिदाबाद तक फ़ैल गया। सन्यासियों द्वारा शुरू किया गया यह विद्रोह जल्द ही एक व्यापक रूप ले लिया।

विद्रोह कर रहे लोग जोकि अकाल के कारण पहले ही त्रस्त थें तो इन्होने सबसे पहले फसलों और कंपनी के अनाज गोदामों पर को लूटना प्रारंभ किया। वंदेमातरम् विद्रोह कर रहे लोगों का प्रसिद्ध नारा बन गया। यह नारा, सर्वप्रथम इसी सन्यासी विद्रोह (sanyasi vidroh) के दौरान लगाया गया था।

1770 से 1779 के बीच केवल बंगाल में ही सन्यासियों ने तीस से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया। जिसे ही मूल रूप से सन्यासी विद्रोह (sanyasi vidroh) कहा गया। जिसका उल्लेख बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ’ और ‘देवी चौधरानी’ में किया गया है|

लम्बे समय बाद वारेन हेस्टिंग ने इस विद्रोह को तो दबा दिया किन्तु सन् 1800 ई० तक बिहार और बंगाल के क्षेत्रों में सन्यासियों और अंग्रेजों के बीच संघर्ष होता रहा।

असफलता के कारण

सन्यासी विद्रोह (sanyasi vidroh) को जितना प्रभावी होना चाहिए उतना नहीं हो सका वैसे तो इसके कई कारण रहे किन्तु जो मुख्य कारण था वह था समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव। जिस कारण से समाज में ही आन्तरिक संघर्ष होने लगें।

हालाँकि पंडित भवानी चरण पाठक ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ने का प्रयास किया पर इसका कोई खास लाभ नहीं मिला क्योंकि जहाँ एक ओर उच्च वर्ग के लोग यथास्थिति का समर्थन कर रहें थें यानी की उनका कहना था की जैसे चलते आ रहा है उसे वैसे ही रहने देना चाहिए तो वहीँ ठीक इसके विपरीत निचली जाति के लोग इसका विरोध करते थें। परिणाम स्वरुप समाज में ही आन्तरिक संघर्ष चलता रहा।

बाद में फिर पंडित भवानी चरण पाठक को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर हत्या कर दी। हत्या के बाद देवी चौधुरानी ने इस विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया।

भले ही यह विद्रोह उतना सफल ना रहा हो किन्तु इस आन्दोलन ने लोगों में एक नई चेतना का संचार किया और भारत में भविष्य के ब्रिटिश विरोधी आन्दोलनों के लिए मंच तैयार हो गया।

FAQ Section :

सन्यासी विद्रोह कब हुआ था?

वैसे तो यह विद्रोह 1760 से 1800 के बीच हुआ था किन्तु जो मूल रूप से यह विद्रोह 1770 से 1779 के बीच के काल खण्ड को माना जाता है।

सन्यासी विद्रोह का नेतृत्व किसने किया?

इस विद्रोह को दिर्जिनारायण और केना सरकार ने नेतृत्व प्रदान किया था।

सन्यासी विद्रोह कहाँ हुआ था?

सन्यासियों द्वारा शुरू किया गया सन्यासी विद्रोह मूल रूप से बंगाल हुआ था किन्तु बंगाल के अलावे बिहार भी इस विद्रोह से प्रभावित था।

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