सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म 1896 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था उनके जन्म की तिथि को लेकर अनेक मत प्रचलित है। निराला जी की कहानी संग्रह लिली में उनके जन्म तिथि 11 फरवरी 1899 प्रकाशित है। निराला अपना जन्म दिवस बसंत पंचमी को ही मानते थे। उनके पिता पंडित राम सहाय तिवारी उन्नाव के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
निराला जी की औपचारिक शिक्षा हाई स्कूल तक हुई तदुपरांत हिंदी संस्कृत तथा बंगाल का अध्ययन उन्होंने स्वयं किया। 3 वर्ष की वाल्या अवस्था में मां की ममता छीन गई युवावस्था तक पहुंचे पिताजी भी साथ छोड़ गए। प्रथम विश्व युद्ध के बाद पहली महामारी ने पत्नी मनोहर देवी, चाचा भाई तथा भाभी को गवा दिया। विषम परिस्थितियों में भी अपने जीवन से समझौता न करते हुए अपने तरीके से ही जीवन जीना बेहतर समझा।
इलाहाबाद में उनका विशेष अनुराग लंबे समय तक बना रहा। इसी शहर के दारागंज मोहल्ले में अपने एक मित्र राय साहब के घर के पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1971 को अपने प्राण त्याग कर इस संसार से विदा ली। निराला ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद भी किया। निराला सचमुच में निराले व्यक्ति के स्वामी थे। निराला जी का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है।
कार्यक्षेत्र
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पहली नियुक्ति हुई उन्होंने 1918 से 1922 तक यह नौकरी की, उसके बाद संपादन स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत हुए। 1922 से १९२३ के दौरान कोलकत्ता से प्रकाशित ‘समन्वय’ का संपादन किया। 1930 के अगस्त में ‘मतवाला’ के संपादक मंडल में कार्य किया, इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। धर्मवीर भारती का जीवन परिचय
मासिक पत्रिका सुधा से 1934 के मध्य तक संबंध रहे। 1934 से 1940 तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद 1942 से इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया।
उनकी पहली कविता ‘जन्मभूमि प्रभा’ नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहली कविता संग्रह 1923 में अनामिका नाम से तथा पहले निबंध ‘बंग भाषा का उच्चारण’ अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।
अपने समकालीन अनुक्रम से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है वह हिंदी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।
निष्कर्ष
1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं – मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य के मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य भी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता उनके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र इसी तरह कविता का भी हाल है।