राजनीति में अपराधीकरण पर निबंध

लोकतंत्र जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन होता है किंतु यदि लोकतंत्र में अपराधियों का बोलबाला हो जाए तो यह जन्मने के लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाती है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक राजनीति में अपराधिक प्रवृत्ति में भी वृद्धि हुई है आजकल राजनीतिक दलों द्वारा चावन में अपराधित तत्वों की सहायता लेना सामान्य सी बात हो गई है।

राजनीती में अपराधीकरण

विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में ऐसे सांसद एवं विधायक हैं। जिनके खिलाफ नए पुराने आपराधिक रिकार्ड दर्ज हैं। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के कारण चावन में धान का प्रभाव बढ़ा है एवं चावन के दौरान नहीं सकता घटनाएं में वृद्धि हुई है इन सबके अतिरिक्त अपराधियों के हाथों में सट्टा होने के कारण भ्रष्टाचार के मामले में भी वृद्धि हुई है।

प्रश्न उठता है की राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण की प्रवृत्ति के लिए कौन जिम्मेदार है जनता यह नेता? इस बात का उत्तर राजनीति की परिभाषा से मिल जाता है शासन करने के लिए अपनाई गई नीति को ही राजनीतिक की संज्ञा दी गई है। चुनाव पर निबंध

इस तरह राजनीति सत्ता में पहुंचने का माध्यम राजनीतिक शास्त्र के विद्वान प्लूटो का मानना था कि जिसके पास शक्ति है। राजनीति उन्हीं के लिए है यह कथन अपराधी प्रवृत्ति के राजनीतिज्ञों पर सौ फीसदी लागू होता है जो अपने बड़ों पर एवं धर्म के प्रभाव से चुनाव जीतने का प्रयास करते हैं।

बहुवालियों का प्रभाव

अब तक जनता नेता को एवं नेता जनता को राजनीति में अपराधियों के बढ़ते वर्चस्व के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं, परंतु पिछले कुछ वर्षों की भारत की राजनीतिक गतिविधियों पर गौर किया जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है और पता चलता है की नेताओं ने दबंग एवं बाहुबलियों के प्रभाव से चुनाव जीतने के लिए उन्हें राजनीति में आने का मौका दिया। इस प्रकार बाहुबली को सत्ता का संरक्षण मिला एवं नेताओं को बाहुबलियों का बाल एवं प्रभाव इसके बाद राजनीति में अपराध का खेल प्रारंभ हो गया।

पुराने नियम

भारतीय लोकतंत्र में अपराध एवं अपराधियों के प्रभाव को कम करने के लिए संविधान में जनप्रतिनिधित्व संबंधित कानून का प्रावधान किया गया था। किंतु इस कानून में कई कमियां जिसके कारण यह पूरी तरह कारगर नहीं हो पता सन 1951 में बना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम अब लगभग प्रासंगिकता हो गया है।

इसकी धारा 8 के तहत किसी प्रत्याशी को चुनाव लड़ने से आयोग होने के लिए दो वर्ष से अधिक की सजा मिलनी आवश्यक है। अपराधी का दोषी पाए जाने पर सजा कितनी भी मिले पर वह चुनाव नहीं लड़ सकता किंतु कानून के अनुसार जब तक दोष सिद्ध नहीं हो पता हो जाता व्यक्ति निर्दोष ही माना जाता है। और इसी का फायदा उठाकर अपराधी अपराध सिद्ध होने तक राजनीति में अपने पैर जमाए रहता है एवं अपने प्रभाव से अपने पुराने अपराधों को नष्ट करने का प्रयास करता है।

वर्ष 2002 में उच्चतम न्यायालय ने एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेसी रिफॉर्म से संबंधित निर्णय सुना कर यह प्रावधान किया था कि सभी प्रत्याशियों को अपने नामांकन पत्र भरने के साथ यह घोषणा करनी होगी कि उनके विरुद्ध ऐसे अपराधों के आरोप न्यायालय में विचाराधीन नहीं है। जिसमें दो वर्ष से ज्यादा की कैद हो सकती है संसद या विधायक रहते हुए यदि किसी को सजा होती है तो ऐसे मामलों में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का अलग मानदंड लागू होता है। ऐसे मामलों में भले ही धारा 8 में वर्णित किसी अपराध की सजा मिली हो या 2 वर्षों से अधिक की सजा मिली हो इसके आधार पर उसे आयोग नहीं ठहराया जा सकता।

विभिन्न रिपोर्ट

लोकसभा या विधानसभा में यदि अपराधियों का रिपोर्ट देखा जाए तो यह देखकर घोर आश्चर्य होता है। कि अपराधियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। कुछ वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश दिया था। कि यदि कोई व्यक्ति लोकसभा या विधानसभा के चुनाव का प्रत्याशी है तो वह यह शपथ पत्र दाखिल करेगी कि उसके खिलाफ कितने मुकदमे दर्ज है। उच्चतम न्यायालय का यह हनुमान था कि जब मतदाताओं को किसी व्यक्ति के आपराधिक रिकार्ड के बारे में पता चलेगा तो वह उसे किसी हालत हालत में वोट नहीं देंगे किंतु व्यावहारिक तौर पर देखा गया है कि इसके बावजूद आपराधिक छवि वाले लोग चुनाव में जीत कर आ गए।

राजनीति में अपराधीकरण पर अंकुश के उद्देश्य से जनप्रतिनिधि अधिनियम का निर्माण किया गया था। समय पर समय एवं परिस्थिति में परिवर्तन के साथ ही इसमें भी संशोधन करने की आवश्यकता होती है ताकि यह बदली हुई परिस्थिति में भी कारगर हो सके। इस बात को ध्यान में रखते हुए इसमें समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं।

समय के अनुसार परिवर्तन

चुनाव में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों द्वारा मतदान की आवश्यकता थी। इसी प्रकार राजनीतिक दलों को दी जाने वाली आर्थिक मदद के संबंध में भी संशोधन किए जाने की आवश्यकता थी। ताकि काले धन का प्रयोग चुनाव में ना हो सके इन मामलों एवं ऐसे ही उन मामलों के लिए कई बार जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन हो चुके हैं। ऐसा ही एक संशोधन 1996 में किया गया इसमें तय किया गया था कि राजनीतिक दल द्वारा उम्मीदवार के ऊपर किया गया खर्च प्रदर्शित किया जाना चाहिए। अन्य सभा में उम्मीदवार का व्यक्तिगत व्यय माना जाएगा।

कोई भी व्यक्ति लोकसभा या विधानसभा चुनाव में दो से अधिक स्थानों से एक साथ चुनाव नहीं लड़ सकता जो व्यक्ति राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करने या राष्ट्रीय गान को रोकने के लिए सक्षम न्यायालय द्वारा दूषित किया गया है। वह विधानसभा यह लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं हो सके। उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा संबंधी अधिनियम 2003 में जारी की गई जिसके तहत लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा 25 लाख तथा 10 लाख तय की गई।

निष्कर्ष

अपराधिक दृष्टि भूमि वाले लोगों का सामाजिक बहिष्कार राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों के जूते घोषणा पत्र बटन यदि पर प्रतिबंध मीडिया एवं अन्य जनसंचार माध्यमों में आपराधिक दृष्टि भूमि वाले लोगों को न्यूनतम अथवा ना के बराबर कवरेज देकर एवं चुनाव संबंधी कानून में संशोधन का राजनीति में बढ़ रहे अपराधीकरण को रोका जा सकता है। किंतु इस सब प्रयास में सबसे बड़ी भूमिका जनता को ही निभानी होगी क्योंकि आखिरकार मतदान तो उसे ही करना है। जनता को जागरूक करने के लिए गैर सरकारी संगठनों एवं मीडिया की भूमिका की अहम होगी हो सकती है। राजनीति में लगातार बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए विभिन्न संगठनों को एकजुट होकर देशव्यापी अभियान चलाना होगा क्योंकि एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए अपराध मुक्त राजनीतिक आवश्यक है। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *