मीराबाई का जीवन परिचय

श्री कृष्ण जी की अनन्य भक्त मीराबाई किसी नाम के मोहताज हैं इनका जन्म 1498 में हुआ था। इनके पिता मेड़ता के राजा थे। जब मीराबाई बहुत छोटी थी तो उनकी माता ने श्री कृष्ण जी को यूं ही उसका पति बता दिया इस बात को मीरा जी सच मान गई। उन पर इस बात का इतना गहरा प्रभाव पड़ा की वह कृष्ण जी को ही अपना सब कुछ मान बैठी।

मीराबाई

युवा की अवस्था में पहुंचने पर भी उनके प्रेम में कमी नहीं आई। अन्य युवतियों की तरह वह भी अपने पति को लेकर विभिन्न कल्पनाएं करती परंतु उनकी कल्पनाएं, उनके सपने, श्री कृष्ण जी से आरंभ होकर उन्हें पर समाप्त हो जाते।

समय बीतता गया। मीरा जी का प्यार श्री कृष्ण के प्रति और बढ़ता गया। सन् 1516 ईस्वी में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया। वे मीरा के प्रति स्नेह भाव रखते थें पर मीरा का ह्र्र्दय श्री कृष्ण पर आ गया था अतः वह अपने विवाह के बाद भी श्री कृष्ण की आराधना ना छोड़ सकी। वह कृष्ण को ही अपना पति समझती और बैरागियों की तरह उनके भजन गाती।

मेवाड़ के राजवंशों को भला यह कैसे स्वीकार हो सकता है कि उनकी रानी एक बैरागनी की तरह जीवन व्यतीत करें। उन्हें मारने की साजिस रचने जाने लगी। मीरा की भक्ति प्रेम निश्चल था इसलिए विश्व भी अमृत हो गया। उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण को ही समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय

मीरा अपने गुरु के विषय में कहा जाता है कि बिना गुरु धारण किए भक्ति नहीं की जा सकती। भक्ति पूर्ण व्यक्ति ही प्रभु भक्ति का भेद बता सकता है वही सच्चा गुरु है। स्वयं मीरा के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रविदास थे।

उन्होंने धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध शुद्र गुरु रविदास की भक्ति की, साधू-संतो की संगत की।

मीरा की मृत्यु के बारे में अलग-अलग मत है –

  • लुनवा के भूरदान ने मीरा की मौत 1546 में बताया।
  • रानी मंगा के भाट ने मीरा के मौत 1548 में बताई।
  • डॉक्टर शेखाबत अपने लेख और खोज के आधार पर मीरा की मौत 1547 में बताते हैं।

हरमेन गोएटास ने मीरा के द्वारका से गायब होने की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया परंतु वह मौलिक नहीं है। उनके अनुसार वह द्वारका के बाद उत्तर भारत में भ्रमण करती रही। उसने भक्ति का प्रेम का संदेश सब जगह पहुँचाया। चित्तौड़ के शासक कर्मकांड एवं राजसी की वैभव में डूब कर उसे भूल चुके थे, किसी ने उसे ढूंढने का प्रयास नहीं किया।

अपने 5 वर्ष की अवस्था में मीरा ने गिरधर का वरन किया और उसी दिव्यमूर्ति में विलीन हो गई। धन्य है वह प्रेम की मूर्ति जिसने दैविक प्रेम का एक ऐसा उदाहरण दिया कि बड़े-बड़े संत, भक्त की चमक भी धीमी पड़ गई।

साहित्यिक देन

मीरा जी ने विभिन्न पदों और गीतों की रचना की। मीरा के पदों में ऊँचे आध्यात्मिक अनुभव है। उनमें समाहित संदेश और अन्य संतों की शिक्षा में समानता नजर आती है। उसके उनके प्राप्त पद उनके आध्यात्मिक उन्नति के अनुभवों का दर्पण है। मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रयोग किया है जैसे हिंदी, गुजराती, अवधी, भोजपुरी बज्र, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथिली और पंजाबी  आदि|

भावावेग, भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाह धारा, प्रीतम वियोग की पीड़ा की मर्म भेद प्रखता से अपने पदों को अलंकृत करने वाली प्रेम की साक्षात मुक्ति मीरा के समान शायद ही कोई कवि हो।

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